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________________ किरण ३१९ करना 'प्रतिपूजा' कहलाती है और बीतरागदेवकी वैय्यावृत्य करना 'परिचरण' या पूजा ( अष्टद्रव्य से ) कहलाती है। इसका नाम 'सपर्या भी है । साधारण बोलीमें 'आदर-सत्कार' भी कहा जाता है इस प्रकार समन्वय करना चाहिये, जिससे मतभेद न रहे, अस्तु । कहीं-कहीं 'परिचर्या' शब्द भी आता है, किम्बहुना | पाठक विचार करें । नोट - पूजा व प्रतिपूजा यह सब वैय्यावृत्य नामक शिक्षाव्रत में अन्तर्गत होता है जो Parasar मुख्य कर्त्तव्य है ऐसा समझना चाहिये । नवधा भक्ति, आहाराविदान, स्तुति, प्रणाम, आदि ये सब कार्य प्रतिपूजाके अन्तर्गत है । शिक्षाव्रतों में मतभेद श्री समन्तभद्राचार्य देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, वैयावृत्य ऐसे चार भेद ( नाम ) मानते हैं । तथा श्री अमृतचन्द्राचार्य - सामायिक, प्रोषधोपवास, भोगोपभोगत्याग, अतिथिसंविभाग ( वैयावृत्य ) ये चार भेद मानते हैं । यहाँपर देशावकाशिक और भोगोपभोग में अन्तर ( भेद ) हैं । समन्तभद्राचार्यने भोगोपभोगपरिमाण (त्याग का -- गुणव्रतोंमें शामिल किया है। और अमृतचन्द्राचार्यने शिक्षाव्रत में शामिल किया है। अर्थ प्रायः एक-सा होनेपर भी नामभेद है। इसका कारण स्मृतिभेद हो सकता है, ऐसा समझना चाहिये, किम्बहुना ॥१५२॥ जनशासन मार्गभेद आम (१) माने (२) अपवादी मार्ग बसाए गये हैं । उत्सर्गमार्ग या शुद्ध बीतराग मार्ग में शिथिलाचारको स्थान नहीं रहता वह बड़ा कड़ा ( अटल ) रहता है । इससे उसमें कोई ढिलाई नहीं होती बराबर १६ पहर तक निराहार उपवास रखना अनिवार्य है । avaran में ढिलाई रहती है, उत्सर्गकी तरह कड़ापन नहीं रहता । अतएव उसमें पानीमात्रका लेना या कवीदरका लेना बतलाया गया है। उसके दो भेद होते हैं । (१) यात्राम्लाहार (२) कांजिकाहार (दक्षिण प्रदेश में ) । (क) आचाम्लाहार गरम ( प्रासुक) तक ( मठा ) या मांडमें थोड़ा भात मिलाकर - जिसमें नमक वगैरह कोई रस न मिला हो-लेना, आचाम्लाहार कहलाता है । (ख) कांजिकाहार अकेला विना रस ( नमकादिरहित ) मोड या प्रासुक तक हो ( विनाभातके ) ग्रहण करना, कांजिकाहार कहलाता है। यह सब अपवाद मार्ग है । परन्तु जब उत्सर्ग मार्ग अपनाने में संक्लेशता या आकुलता हो उस वक्त अरुचिपूर्वक बेगार जैसे इस मार्गको पकड़ना बतलाया गया है किन्तु शक्ति रहते हुए नहीं बतलाया गया है, ऐसा भेद समझना चाहिये । यही उत्सव अपवादको सन्धि है किम्बहुना । (स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा व सागारधर्मामृत में देखो ) 1 सबका लक्ष्य इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयम पालना है— अहि धर्मको अपनाना है अस्तु ।।१५२।। १. कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं विदुः ॥
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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