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________________ परिशिष्ट ज्ञानगुणवाला आत्मा अनादिकालसे अज्ञानपर्याय सहित हो रहा है अर्थात् उसके ज्ञानगुणको पर्याय अज्ञानरूप बनाम सबको अपना मानने रूप ( भेदशामरहित ) अश हो रही है और वह इस तरह किज्ञानवान् ( चैतन्यनिदानजीव ) आत्मा शशस्फटिक या दर्पणकी तरह अत्यन्त स्वच्छ एवं निर्मल है, उसमें कोई मल या विकार (रागादिव अज्ञानादि माहों है सिर्फ उसमें एक स्वच्छता ही मौजद है (यह दस्त स्थिति है) । लेकिन इस सचाई ( सत्यता ) को न जानकर वह भेदज्ञान रहित अज्ञानी जीव, अपने आत्माके उस स्वच्छ निर्मल स्वभावमें जो तमाम ( कुल ) पदार्थ, रागादि द अजीबादि, प्रतिविम्बित होते हैं ( झलकते हैं । उनको वह अजानी जोय अपने मानकर अपने साथ एकता ( अभेद ) करता है कि मुझमें और इनमें कोई भेद नहीं है, सब मेरे ही हैं, जो असंभव है, त्रिकालमें में एक नहीं हो सकतें, सबको सता जुदी २ हैं। बस यही भ्रम एवं अज्ञान है, यह मूल में भूल या गलती है । दूसरी गलती उनमें रागद्वेष करना तथा उन्हें इष्ट अनिष्ट मानना है । उसका मतीजा संसारकी बेलका बढ़ना है। ऐसी विकट ( विषम ) परिस्थितिमें जब कभी किसी तरह उसी अज्ञान पर्यायका अभाव होकर ज्ञान पर्याय (भेदज्ञानरूप ) प्रकट हो सब जीवको सञ्चचा भेदज्ञान ( सम्परज्ञान ) एवं सच्या श्रद्धान ( सम्यग्दर्शन ) प्रास हो और फिर वह अपनी भूलको समझे तथा उसको मेटने या हटानेका प्रयल ( पुरुषार्थ ) करें। देखो भेजान होनेपर वह भलीभांति समझता है कि मेरे आत्मदर्पण या स्फटिकमें जो प्रतिबिम्बरूप पदार्थ झलके है वे मुझसे भिन्न है और मैं उनसे भिन्न है। दोनोंका परस्पर प्रतिबिम्ब-प्रतिबिम्बक सम्बन्ध है, प्रकाश्य-प्रकाशक एवं ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध है किन्तु एकस्व या तादात्म सम्बन्ध नहीं है । तब उनमें एकता या रागद्वेषादि क्यों करना ? सब व्यर्थ है, और वैसा करना अपराध है संसारका कारण है । मेरी ससा बयों की सत्ता सब पृथक् २ है । इस तरह समझने पर ही जीव जामी या भेदज्ञानी सिद्ध होता है और अनाविकी अज्ञानता मिटती है तथा मोक्षमार्गी सम्यग्दृष्टि छह बनता है। परपदार्थोमें एकताकी श्रद्धा व ज्ञानका होना ही विपरीतसा है, मिथ्या बुद्धि है, जो हेय है-- ( गा० १९।२० समयसार ) मोट-यह निर्णय जीव और अजीब दोनोंको विपरीततामें लागू होता है । इसी तरह आस्थ (३) बंध ( ४ ) संबर ( ५ ) निर्जरा (६) मोक्ष (७) इन ५ पांच मोक्षमार्गोपयोगी तत्त्वोंमें भी विपरीत श्रद्धा (मान्यता) को समझकर छोड़ देना चाहिये और सम्यश्रद्धा कर लेना चाहिये, यह सारांश है। देखो, आम्रवादि दो तरहके ( संयोगोधर्याय में ) माने जाते है अर्थात् (१) स्वाश्रित (जीदगत)। (२) पराश्रित (मुद्गलगत) । ऐसी स्थिति में केवल पोद्गालिक कोका बाना आसव है, उनका बंधना बंध है, उनका न आना संदर है, उनकी योड़ी निर्जरा होना निर्जरा है तथा उनकी पूरी निर्जरा होना ( पृथक हो जाना ) मोक्ष है । ऐसो एकान्त ( एकपक्षीय ) मान्यता विपरीत है, कारण कि वह सब दोके आश्रयसे होती है.--एकके आश्रयसे नहीं होती, यह नियम है । विचार करने पर यह मान्यता और कथन व्यवहारी ब.उपचाररूप है क्योंकि मात्र पराश्रित है। इसी तरह-जीव शामें रागाधिक विकारी भाषोंका होना, आश्रद है। ( ३ ) उन्हीं भादोंके साथ ठहरना बंध है। (४) उन सालों का साफ जामा संवर है । (५) उन भावोंका थोड़ा अय हो जाना निर्जरा है। ( ६ ) उन भावोंका यूफ क्षय हो जाना मोथा है ।। ७) यह मान्यता व कथन अशुख निश्चय नथका है क्योंकि जीवाश्रित या जीवके प्रदेशों में यह सब होता है। तथापि इन दोनों प्रकारके आसपाधिमें परस्पर निमित्तनैमि
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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