SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Asansreededewwand प्रस्तावमा भूमिका Time Mer का ( अपना ) कर्तव्य महीं पाला यह निवार्य है । अतएव वह अनिवार्य है, करना ही चाहिये। उसके पश्चात् यदि सत्य समझकर उसका प्रयोग या उपयोग ( बैसा आचरण नहीं किया तो भी कुछ स्वभ महीं होता वह सिर्फ गड़े हुए धनके समान निरुपयोगी है । तदनुसार उसका प्रदर्शन करना दूसरा कर्तब्ध है, इसका नाम चारित्र या चर्या है 1 अनादिको भूल या मिथ्यात्व मिदने (छूटने के बाद निर्मूल हुए सम्यग्दृष्टिको उसका लाभ किस तरह से जाना चाहिये, यह बात स्वासतीरसे विस्तारके साथ इस ग्रन्थमें आचार्य बताई है। जयका रस यह है कि मानने । मने पूल रहनेसे जीवका कल्याण या उत्थान कदापि नहीं होता, कारण कि यह स्वयं अपना घात ( हिंसा या अधर्म ) करता रहता है जो जीवका कर्तव्य नहीं है अर्थात् वह अपने कर्तव्य ( अपनी रक्षा करना से स्वयं च्युत हो जाता है, अपनी रक्षा नहीं कर सकता बनाम 'अहिंसारूप परमधर्म नहीं पा सकता और उसके बिना जीवन बेकार है, ऐसा समझना चाहिये इत्यादि । तदनुसार अहिंसा परमधर्म की प्राप्ति एवं रक्षाके लिये मुख्य दो कार्य करमा आचार्यले बतलाए है। (१) मिथ्यात्वको हटाकर सम्यक्त्व प्राप्त करना ( २ ) मिथ्या आचरण (प्रवृत्ति को हटाकर सम्यक आच. रण करना, क्योंकि दोनों के विना' हिंसा जैसे महापाप ( अधर्म )का अभाव नहीं हो सकता अर्थात् अहिंसा परमधर्म नहीं चल सकता, जो कि जीवका स्वभाव या धर्म है ( श्रोता शिम्य श्रावकका कर्तव्य है)। उस परित्रकी भूमिकास्वरूप { १ ) हिंसा {२) झूठ (३) चोरी ( ४ ) कुशील ( ५ ) परिग्रह इन पांच पापोंको छोड़ने का उपदेश दिया गया है, एवं उनके स्थान में पांच अप्पयत ( एकदेशमारित्र ) धारण करनेका उपदेश, विचित्र या आश्चर्यजनक विधिसे दिया है । वह विधि । तरीका ) निश्चय और व्यवहारकी है। (१) निश्चयविधिसे चारिष का साक्षात् सम्बन्ध आत्माको शुखपरिणतिसे बतलाया गया है और (२) व्यवहारविधिसे चारित्रका सम्बन्ध बाधक्रियासे अर्थात् संयोगीपर्यायमें होनेवाली योगकषायकी क्रिया (शरीरके परिणमन से सम्बन्ध बतलाया है, जो कि बाह्यदृश्विाले लौकिक जनोंको द्रव्येन्द्रिमसे दिखता है, उसको समाचार भी कहते हैं। लोकमें उसकी ही प्रतिष्ठा है असएक वह भी पदके अनुसार कर्त्तव्य है या उपादेय है किन्तु परलोक ( मोक्ष के प्रति बह उपादेय नहीं है ऐसा बसलाया है । इसीका खुलासा अनेकान्तदृष्टिसे कवित्' उपादेय है और कथंचित् हेय है ऐसा विश्रिरूप किया है, किन्तु सर्वथा ( एकान्तसे ) वैसा नहीं है, इसका निषेध किया गया है, इस तथ्यको गहरी दृष्टिसे पर्याप्त समझना है जो उलझनमें पड़ा हुआ है। इसीके सिलसिले में उपाधानकारण व निमिसकारणका भी विवाद उठ खड़ा है। समाधान के लिये साक्षान्कारण ( निश्चम ) और परंपराकारण ( व्यवहार ) यह बसलाया जाता है अथवा सामान्यतः कारण और कारणका कारण ऐसा कहा जाता है। इत्यादि जो भी समझमें आये किन्तु उसका निर्धार अध्यात्मशास्त्रोंसे करना चाहिये व मामना चाहिये सभी विवाद मिट सकता है कारण कि अध्यात्मशास्त्रों में ही सत्य-उपदेश दिया गया है अतएव वह निकर्ष रूपयन है, स्वाधीनताको एवं शखताको लिये हुए होने से प्रामाणिक भी है। अतएव उसमें हर नहीं करना चाहिये यह तो व्यानुयोरका विषय है जो स्वतंत्र है। भावार्थ-माचार्धन सर्वत्र मुख्य-गौणदृष्टि रखकर जाम कथन किया है, अर्थात् पाँच लगा दिया है, जिससे अन्य अत्यन्त प्रियता भागई है और अज्ञानको हटा दिया है, इस प्रकार अपूर्वता ला दी है; यह महान् उपकार किया है । संक्षेपमें कहा जाय तो व्यवहारकी अभेददृष्टिको हटाने के लिये और भेददृष्टिको स्थापित करने के लिये ही इसका जन्म ( निर्माण । हुआ है, यह सत्य या सच्चा बस्तुका स्वरूप बतलाता है असत्य और मिलावटी ( नकली) स्वरूप महीं बतासा, वह भी निर्भीकताके साथ मह खास विशेषता है । PS PoksatokHEdit SE
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy