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________________ पुरुषाथसिद्धयुपाय करनेके ( शुभ रागरूप ) होते हैं तब वह प्रमादी कहा जाता है इसलिये कि उसने जो प्रारम्भमें दीक्षाचार्यसे अपने उपयोगको शुद्ध बीतरागतामें { अपने स्वरूपमें ) लगानेको प्रतिज्ञा की थी उससे वह ध्युत होकर शुभ रागमें लाने लगा है, बस यही प्रमाद व शिथिलाचार है। ( उस समय वह व्यवहार मोक्षमार्गमें लगा हुआ है ) बाह्य वेशमा यो प्राव रहता है। यही टाँका लगाना कहलाता है अर्थात जिस भाव (शद्धोपयोगरूपवीतराग भाष अथवा श्रामण्यरूप निष्पक्ष भाव या माध्यस्थ्य भाव ) से मुक्ति होती है, उसमें बड़ा लग गया होता है, जिससे मोक्ष जाने में विलम्ब हो जाता है-वह जबतक नहीं छूटता अर्थात् रागभाव हटकर बोतरामभाव नहीं होता तबतक वह संसार में रहता है मोक्ष नहीं जा सकता यह तात्पर्य है। अतएव प्रमादका छोडना मोक्षगामी को अनिवार्य है। उसके प्रत्याख्यानावरण कषायका अभाव (क्षयोपशम ) रहता है तथा संज्वलन कषायका तोवोदय रहता है। फलस्वरूप मुनिपना और महाव्रतपना तो उत्पन्न हो जाता है {बाह्य आरम्भ व परिग्रहका त्याग हो जानेसे ) किन्तु अन्तरङ्ग परिग्रह के सद्भाव (मौजूद ) रहने से मलोत्पन्न हुआ करता है। अर्थात् प्रमाद या अतिचार लगा करता है। इसीका नाम तभंग या व्रतमें छेद होना है। तभी तो ६ छठवें गुणस्थानवाला मुनि ध्यान ( वीतरामतारूप स्वरूपस्थिरता से च्युत होकर शास्त्र रचला, तीर्थ वन्दना, धर्मोपदेश, क्षेत्रविहार, भोजनार्थ चर्या, प्रायश्चित्त विधि आदि कार्य किया करता है, जो मोक्षमार्ग में बाधक हैं किन्तु शुभ रागवश या परोपकारार्थ धर्मानुराग होनेसे ( अन्य धर्मात्माओंको धर्ममें लगानेका करुणाभाव होनेसे ) वह विवश होकर.-..-भीतरसे हेय जानता हुआ भी बाहिर में वैसा करता है इत्यादि विराग व गरूप निश्चय व व्यवहाररत्नत्रयका एकत्र संगम ( एकाधिकरणवृत्ति ) पाया जाता है। इसीका नाम निश्चय और व्यवहारकी सन्धि है । अस्तु। इस प्रकार चित्रलाचरण ( करविताचार) को हेय जानकर वह एकरूप शुद्ध वीतराग मार्गका ही अवलम्बन करने का प्रतिसमय प्रयत्न करता रहता है । प्रतिक्रमणादि किया करता है। यह उसकी प्रमाद दशाको प्रतिक्रिया है। अतएव जबतक अन्तरंग परिग्रह ( १० वें सक ) रहेगा ....... तबसक पूर्ण वीतरामता प्राप्त न होगी न केवलज्ञानादि होंगे इत्यादि त्रुटि बनी रहेगी और मोक्ष न होगा। ऐसी स्थिति में उस अन्तरङ्ग परिग्रह अथवा मोहकर्म के २१ भेदों को हटाने के लिए वह सातवें गुणस्थानमें पूर्ण तयारी कर आठवें गुणस्थानसे कार्यवाही शुरू ( प्रारम्भ ) कर देता है अर्थात् श्रेणी माड़ने लगता है। परिणामोंकी दशाके अनुसार कोई विशुद्ध परिणामी ( शुभोपयोगी ) उन शेष मोहकर्मको प्रकृतियोंको जड़से न निकालकर उन्हें दवा देता है-कुछ शक्ति हीन कछ. समयको कर देता है। उपशमरूप करता है और कोई शद्ध परिणामीलोपयोगी ) उन शेष मोहकमकी प्रकृतियोंको जड़से निकानकर क्षय या नष्ट कर देता है । फलस्वरूप जो आत्मशक्तिकी निर्मल या निखरी दशा ( वीतरामता) से कार्य । उपयोग ) लेता है (क्षपक श्रेणो माइता है ) वह उन विवक्षित कर्मप्रकृतियोंका क्षय करके विजय पा लेता है और थोड़े ही १. मिथ्यात्व, कोथ, मान, माया, लोभ ये पांच और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवंद, नपुंसकवेद ये नो कुल मिलाकर १४ प्रकार होता है। BRI
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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