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________________ सागर रहना पड़ता है ग्रह सजा मिलती है। (२) ज्ञानी सम्यग्दष्टि, उससे कम अपराधी होता हैं, क्योंकि वह पर वस्तुको अपनी तो नहीं मानता किन्तु उसमें राग कुछ करता है, जो अपराध है। उसका फल या दंतु उसको अर्धपुगल परावर्तन कालतक ( म्यादो ) संसार में रहनेका मिलता है, अधिक नहीं । (३अणुवतीको, परवस्तुमें राग कम होनेसे उसका दंड और थोड़ा मिलता है अर्थात वह निरतिदार अणुव्रत पाले तो संभवतः तीसरी पर्याय ( भव ) में ही वह संसार की जेलसे छूट सकता है। ४) महाबतीको, परमें पूर्णराग छूट जानेसे बहुधा वह उसी पर्यायसे मोक्ष जा सकता है, परन्तु यह सब अपराधोंके सर्वथा छूट जाने की बात है किम्बहुना । यह न्याय दृष्टि पर निर्भर है, कर्तव्य पालनेकी बदौलत फलका मिलना है इत्यादि । मुनिका लक्षण और कर्तव्य : लक्षण दो तरहका होता है ( १ ) अन्तरंग लक्षण ( आत्मभूत ) या निश्चय लक्षण और (२) बाह्य लक्षण ( अनात्मभूत ) या व्यबहार लक्षण, दूसरे शब्दोंमें भावलक्षण व द्रव्यलक्षण इति । अर्थात् एकलक्षाः बारामानुयोगी पनि का होता है, जिससे मनिको बाहिर पहिचान होती ' है, उसका सम्बन्ध शरीरकी क्रियाओंसे रहता है। दूसरा लक्षण करणानुयोगको पद्धतिका होता है, जिसका सम्बन्ध आत्माके भावों (परिणामों ) से रहता है यह भेद दोनों में पाया जाता है। चरणानुयोगको पद्धतिसे मुनि या मोक्षमार्गी वह कहलाता है, जो २८ मूलगुण पालता हो अर्थात् ५ महाव्रत ५ समिति ५ इन्द्रियोंपर विजय ( वशीकरण ) ६ आवश्यक ७ शेषके गुण । जैसेवस्त्रत्याग करना ( दिगंबररूप नग्नवेष धारण करना ), केशलंच करना, याबज्जोवन स्नानका त्याग करना, दतौन नहीं करना, भूमिपर सोना बैटना, खड़े २ हाथ में आहार लेना, दिनमें एक बार अल्प शुद्ध आहार लेना ! इनसे प्रत ( प्रतिज्ञा ) की रक्षा होतो है अर्थात् ये बाह्य कर्तव्य निमित्त कारण हैं जो मुनिके लिये अनिवार्य हैं। इनके द्वारा मुनिकी पहिचान होती है। अन्तरंग लक्षण बाहर नहीं दिखते, वे कार्यानुमेय होते हैं अर्थात् जैसा अन्तरंग परिणाम ( शुद्ध या अशुद्ध ) होता है ( उपयोगी होता है ) उसके निमित्तसे वैसा ही योग (शरीरादिका व्यापार अर्थात कार्य होने लगता है जो नैमित्तिक है। उससे उन साधकोंके भावोंका पता ( परिचय ) लगा लिया जाता है कि वे कैसे हैं इत्यादि । मुनिके ६ छठवां गुणस्थान ( प्रमत्त नामका ) होता है, जिसका सम्बन्ध मुख्यतया भावोंसे है, कारण कि गुणस्थान वगैरह सब जीवके पांच 'भावोपर ही निर्भर रहते हैं ऐसा नियम है। ६ वें गुणस्थानवाले मुनिके भावोंकी अपेक्षासे प्रमादरूप भाव रहा करता है। प्रमादका अथं च्युत हो जाना होता है अर्थात् प्रतिज्ञाका भंगकर देना माना जाता है, जो कि तीव्र कषायके उदयमें होता है अर्थात् जब जोवके ( मुनिके ) द्रव्य कषायका तीग्ररूपसे उदय होता है और उसके परिणाम विचलित होते हैं अर्थात् शुद्धोपयोग ( वीतरागता ) में स्थिर म रहकर पंचमहावतादि धारण १. औपमिकक्षायिको भावी मिथश्च जीवस्य स्वतत्त्रमौदयिकपरिणामिको उ ।। १ ।। अध्याय २ तः सू०।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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