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________________ ७४ पुरुषार्थसिद्धधुपाय व्रत अवतरूप चितकबरी या शिशिलाचाररूप ( रागविरागयुक्त ) अवस्था ( पाँचवे गुणस्थानवाली श्रावकब्रतकी दशा ) से निरन्तर विरक्त या अरुचि रूप ऐसी सर्वथा या पूर्ण वीतरागतारूप अनुपम या अलौकिक ( लौकिकजनोंसे भिन्न प्रकारकी होती है अर्थात् पूर्ण शुद्ध व निर्मल होती है ।।१६।। भावार्थ--मोक्षमार्गी मूल में दो तरहके होते हैं (१) चिन्तक (२) साधन । चिन्तक अव्रती होते हैं, जो खाली तत्त्वोंकी श्रद्धा एवं विचारधारा रखते हैं जैसे चौथे गुणस्थानवाले सम्यग्दृष्टि जीव । साधक, मोक्षमार्गकी साधना करने वाले आणुनती व महायतो जीव । श्रावक व मुनि ) । परन्तु सामान्यतः मोक्षमार्गी ३ तीन तरह के होते हैं, (१ ) अव्रती (२) अणुव्रती (३) महानती, छिकिन सबमें मुख्य या श्रेष्ठ मुनिराज होते हैं यह यहां बताया गया है, मुनियोंका पद दर्जा या स्थान उच्च होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि संयोगीपर्याय में रहते हुए प्रवृत्ति व निवृत्तिरूप ( ग्रहण भोजनादि स्वरूप तथा त्याग परिग्रहादि स्वरूप ) दोनों कार्य करते हैं परन्तु प्रवृत्तिरूप कार्यसे अत्यन्त विरक्त वा उदासीन रहते हैं हमेशा शुद्धताका आलम्बन लेते हैं, अशुद्धताका त्याग करते हैं अर्थात् रामको छोड़ते हैं --वैराग्यको धारण करते हैं, यही अलीफिकता उनके पाई जाती है। तथा मुनियोंका यही कर्त्तव्य भी है.---संसार, शरीर, भोगोंसे जुदा रहना। जो श्रमण मुनि होकर भी इसके विपरीत आचरण या वृत्ति करते हैं वे महान् गलती व अपराध करते हैं। रागी द्वेषी मुनि कभी संसारसे पार नहीं हो सकता। चाहे वह राग प्रशस्त ( शुभ ) ही क्यों न होवे, वह बंधका ही कारण है मोक्षका कारण नहीं है। यद्यपि उस भूमिकाम वह होता जरूर है परन्तु साधु मुनि उसको इष्ट या उपादेय नहीं मानता, विगार या बलात्कार ही समझता है एवं उससे अरुचि रखता है, उसका स्वामी नहीं बनता इत्यादि । तब सच्चे मुनिको दुनियांके या गृहस्थरागियोंके कार्योमें पड़ना ही नहीं चाहिये । गको सो उसे कृतकारित अनुमोदना ६ मनवचनकायसे छोड़ ही देना चाहिये क्योंकि बह बिघस्प है। मोक्षमार्गकी साधना उनका मुख्य कर्तव्य है। झूठी प्रशंसा या बाहवाहमें आकर उनको बन्धकारक कार्य कदापि नहीं रखना चाहिये। लोकषणा या लोकस्याति सदा घर्जनीय है। इसीलिए प्रतिक्रमणादि करनेकी विधि शास्त्रों में कही गई है। उसमें मुख्यतः स्वामित्व छुड़ाया गया है-शुद्ध स्वरूपका अनुभव कराया गया है । अस्तु । इसका विचार हमेशा मुनि या त्यागीको करना चाहिये व अमल (कवि) में लाना चाहिये । यदि न कर सके तो उसपर श्रद्धा तो रखना ही चाहिये, जिससे सम्यग्दृष्टि बना रहे, मिश्यादृष्टि न हो जाय ( 'जं सक्कइ सं कीरइ' इत्यादि गाथा भावपाहुड़में लिखी है ) । अपराधके अनुसार दंड ( सजा ) मिलता है यह बताते हैं संसारमें चार तरहके जोव होते हैं ( १ ) अज्ञानी ( मिथ्यादृष्टि । (२) ज्ञानी ( सम्यग्दष्टि अन्ती) ( ३ ) अणुव्रती ( देशवती) ( ४ ) महानती ( पूर्णन्नती)) १) अज्ञानी मिथ्या. दृष्टि सबसे बड़ा ( भयंकर ) अपराधी है क्योंकि वह परको अपना मानता है और उसमें अत्यधिक रागद्वेष भी करता है बेहद आसक्ति रखता है। फलस्वरूप उसको संसारको जेल में हो लम्बी करोड़ों mountunins agण्णा MIRALBAMPuww
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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