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________________ पुरुषार्थसिद्धधुपाये अवध अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ शंका कांक्षा तथा विचिकित्सा ] यदि सम्यग्दृष्टि होकर जिज्ञासुभावसे-वस्तुस्वरूपको समझने के इरादेसे कोई शंका अर्थात् प्रश्न करता है, किसी धर्मात्मा आदिसे मिलनेको आकांक्षा ( अभिलाषा ) रखता है अथवा घृणा या अरुचि ( ग्लानि ) रखता है 康舞台 ( जो द्वेष है ) [ च मनमा अन्यदीनां संस्तवः तत्प्रशंसा और मनसे अर्थात् भीतरसे रुचिपूर्वक ( जो राग है ) श्रद्धा भक्तिसे अन्य मतियों या मिध्यादृष्टियोंकी स्तुति ( वचनों द्वारा तारीफ ) करता है--सराहना करता है एवं प्रशंसा करता है ( गुणगान करता है) तो [ सम्यग्दप्रतीवाराः ] सम्यदृष्टि सम्यग्दर्शन में पाँच अतिचार ( दोष ) लगते हैं ।। १८२|| भावार्थ- मोक्षमार्ग अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, ये तीनों जब शुद्धनिरतिचार ( रागद्वेषादि वह कहते हैं तभी में नाका मार्ग बनते हैं। अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने में समर्थ होते हैं, किन्तु रामादिकके साथ रहते हुए वे मोक्षको प्राप्त नहीं करा सकते, यह नियम है । ऐसी स्थिति में यदि प्रश्नोत्तरके रूपमें अर्थात् प्रश्नके या विकल्प के द्वारा वस्तु स्वरूपको समझने के लिये ( श्रद्धालु होते हुए भी ) जिज्ञासारूप राम प्रश्न किया जाय तो भी अतिचार है उससे बन्ध अवश्य होगा । कारण कि राग व द्वेष चाहे शुभ हो या अशुभ हो बन्धका कारण होता हो है, मोक्षका कारण नहीं होता - मोक्षका कारण एक निर्विकल्प वीसरागता ही है | तदनुसार आकांक्षा या चाह करना या अनाकांक्षा या अरुचि ( ग्लानि-द्वेष ) करना ये सभी विकल्परूप तीनों जातिके कार्य अतिचार में शामिल है। तथा अन्यमतावलंबियोंकी भी प्रशंसा व स्तुति करना लोकाचार में अनुचित न होने पर भी मोक्षमार्गी ( सम्यग्दृष्टि ) के लिए मोक्षमार्ग में अनुचित ( खतरनाक - बन्धकका कारण ) है क्योंकि लोकमें रहते हुए लोकाचारका पालना अनिवार्य होने से वह सब ऊपरी रुचि ( राग ) से या चलन व्यवहारसे करना ही पड़ता है । इसीलिये जैन शास्त्रों में दुर्लभताएं बतलाते हुए सबसे पहिले दुर्लभत्ता ( कठिनाई ) भेदज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानकी है-वह बहुत भाग्यसे मिलता है। दूसरी दुर्लभता, वद्रूप या तन्मय उपयोग रहनेकी है- उपयोग बहुत जल्दी बदल जाता है-- स्थिर नहीं रहता । तोसरी दुर्लभता बाह्य संयोगको अर्थात् इन्द्रियोंके विषयोंको त्यागने की है, उनका त्याग जल्दी व आसानी से नहीं होता, पर्याप्त पुरुषार्थं करना पड़ता है, साधन मिलाना पड़ते हैं इत्यादि । कहने से करना कठिन है, किम्बहुना | जैन वीतराग धर्मका पाना भी बड़े सौभाग्यका फल है इत्यादि ॥ १८२॥ नोट ---काका अर्थ यहाँ पर संशय या सन्देह नहीं हैं किन्तु जिज्ञासारूप प्रश्न है; कारण कि संशय या सन्देह मिथ्याज्ञानका भेद है जो सम्यग्दृष्टिके पहिले ही ( प्रारंभ में ही ) नष्ट हो जाता है-वह जिनवाणीका परम श्रद्धालु होता है, उसको कोई संवाय नहीं रहता - पूज्य समन्त-भद्राचार्यने रत्नकरं श्रावकाचार में खड्गके अटल पानीकी तरह श्रद्धा उसके बतलाई' है । तब श्लोकगत शंका शब्दका अर्थ संशय या सन्देह कतई नहीं हो सकता । इसी तरह निश्चयसे शंकाका अर्थ, भय भी नहीं हो सकता। क्योंकि सम्यग्दष्टिको निमित्तोंका भय नहीं होता कि निमित्त १. इदमेवेदृशमेव इत्यादि श्लोक १० ११ देखो |
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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