SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ মপিৰামাল मोट---अतिचार आदि दोष अज्ञान ३ प्रमादसे होते हैं अतएव दोनों को दूर करना चाहिये, अस्तु । यतोंका फल निर्दोष या निविचार होने पर ही पूर्ण प्राम होता है, व्रतोंमें जितना दोष लगता रहेगा उतना ही फल भी कम प्राप्त होगा यह नियम है। यहां पर स्थूले दोषों का नाम व कथन किया जा रहा है. मुहम दोषों का अस्तित्व तो बहुत दूर तक इला है, उनका छुटना बद्रिपर्धक नहीं होता किन्त स्वतः हो वैसा परिणमन होनेपर होता है अर्थात वह यत्नमाध्य नहीं है। आत्माके सभी गुण निश्चयसे यत्न या पुरुषार्थ मान्य न होते पह दढ़ विश्वास रखना बह वस्तुका परिणमन है। यदि कोई ऐसा कहे कि 'यत्म साध्य है तो यह व्यवहारी है क्योंकि पराथितता मानना सब व्यवहार कहलाता है, तथापि पुरुहाथ करने की मनाही नहीं है, पुरुषार्थ उपयोग या मनको बदलनेका करना चाहिये, क्योंकि उपयोग निश्चयसे स्थिर नहीं रहता वह चंचल हो जाता है अत: वह परका ( निमित्त का । आश्रय लेने लगता है। लेकिन श्रद्धान सही रहता है वह नहीं बदलता अतः सम्यग्दर्शन नष्ट नहीं होता यह तात्पर्य है अस्तु । अतिचार अन्तरंग और बहिरंग दो तरहके भी होते हैं। अन्तरंग अतिवारसे परिणाम मलीन । अशुद्ध होते हैं, जिससे कर्मबन्ध होता है और बहिरंग अतिचारसे लोकापवाद होता है-सदाचार बिगड़ता है, उससे प्रतिष्ठा हानि होता है व मंगता होता है उससे १का बन्ध होता है। अत: अतिचार हेय ही हैं ।।१८१|| आचार्य पहिले सम्यग्दर्शनके पांच अतिचार बललाते हैं। शंका तथैव कांक्षा विचिकित्सा संस्तयोऽन्यदृष्टीनाम । मनसा च तत्पशंसा सम्यग्दृष्टेरतीचाराः ।।१८२।। चिसे शंका अरु आकांक्षा विचिकित्सा जो करते हैं। संस्तव और अन्य मतियोंकी मन प्रशंस उत्सरत है। नाम उसीका अतीचार है, जो कभिसे यह करते हैं। बिना चिके होनेपर भी, भतीचार माह लगते हैं । १८२१॥ भावार्थ-~~-विषय रोचनको अभिलाषा ( इछा ) करना ( १ ) अतिक्रम कहलाता है । मरिल या मर्यादा का लोड़ना । २) यतिक्रम कहलाता है । भय साथ । जना मनके } विषयसेवनमें प्रवृत्ति सोना३ विचार कहलातानिय हाबर । मन लगाकर व बार-बार विधय सेवन में प्रवृत्ति करना (४) अनाकार कहलाता है। १. श्रच या राग या सगात्रस्थाका होना हो अनिचार है क्योकि सम्यग्दामन तो निर्विका वीतराग है। रागसे अकेला राग नहीं लेना-द्वेष भी लेना ....ग़गपका होना ही अलिंकार है । दोष है ) क्योंकि सम्यग्दर्शन के साथ रागद्वेषादि मलके रहते हए मोक्ष नहीं होला, वीतरागता के साथ रहनेपर ही मोक्ष होता है तथा श्लोकमें 'मनसा' यह पद लिादा है । जसका सम्बन्ध शंका, कालादि सबके साथ लगाना है क्योंकि वह श्रादासे सम्बन्ध रखता है मंजूरी बताता है। । httti 112512tynaa 1 74234 मार
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy