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________________ आठवाँ अध्याय अतिचारप्रकरण आचार्य सम्यग्दर्शन सहित १२ व्रतोंके अतिचार { दोष ) बतलाते हैं ! अतिचाराः सम्यक्त्वे व्रतेषु शीलेषु पंच पंचेति । सप्ततिरमी यथोदितशद्धि-प्रतिबंधिनी हेयाः ॥१८॥ पद्य अतःचार सम्यग्दर्शन के और साथ बारह प्रतके । स्मल्लेखनको साथ मिलाकर सगर चौदह भेदोंके । पाँच पाँचके कम सबके पत्तर पूरे होते है। शुद्धि विनाशक होने से ये हेय पूज्यवर कहते हैं ।।१८ | अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अति चाराः सम्यक्स्चे प्रतेषु शीलेषु पंच पंप्रेमि ] सम्यकदर्शन में, पाँच अणुव्रतोंमें, सात शीलाम और सल्लेविनामें पांच-पांच अतिचार होते हैं। [ अमी सप्ततिः यथोदिनद्रि पत्तियं धिनः हेयाः ] कुल मिलाकर १४ चौदहके ७० सत्तर अतिवार होते हैं, वे शुद्धि ( निर्मलता ) के बालक हानेसे हेय हूँ त्यागने लायक हैं ।।१८१।३ भावार्थ-इस श्लोकमें खुलासा रूपसे 'सल्लेखना के अतिचारोंका उल्लेख नहीं है तथापि व्रत वा शोलका उल्लेख होने से उसीके अन्तर्गत बह ग्रहण कर लिया जाता है, कारण कि सल्लेखना प्रतरूप या शीलबा हो है-गोलका अर्थ स्वभाव होता है इत्यादि । इस तरह प्रत्येक भेदके पांचपाँच अतिचार होनेसे ७० सत्तर भेद हो जाते हैं । १४ ४ ५ - ७० ) उनका त्यागना नितान्त आवश्यक है क्योंकि उनके रहते हुए व्रतादि शुद्ध अर्थात निर्मल नहीं हो सकते यह तात्पर्य है। शास्त्रों में अतिचार अर्थात दोष ४ चार प्रकारके बतलाये हैं सो समझ लेना । १. (१) क्षति मनःशुद्धिविवरतिशम, न्यविक्रम शीलवृतेविलंबनम् । प्रभोऽतिवारं विषयेषु वर्त्तनं, बदन्त्यनाचारमिहातिसक्तिलाम् ॥९॥ सामाज पाट, अमितगति । (२ ! अतिक्रमो मानसशुद्धिहानियंतिकमो यो विषयाभिलाषा । तथातिचारं करणालसत्वं भंगो ह्यनाचारमिह व्रतानि ( ब्रतानाम् )|| सागारधर्मामृत (३) प्रायश्चित्तचुलिका मामक अन्यमें पेज १५.७ में खुलासा किया गया है। एक बुड़े बैलका उदाहरण देकर समझाया है उसको देखना चाहिए ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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