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________________ सल्लेखमाप्रकरण ऐसी धन्दा धार वतीयन अन्तिम लक्ष्य अवश बाँध । क्रम-क्रम कर बारह घाँले बत सल्लेखनको साधे ।। १४७ ।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [इति यः तरक्षार्थ सततं सकलशीलानि पालयति] पूर्वोक्त प्रकार जो श्रावक व्रतोंको रक्षाके लिये निरंतर सात बीलोंको पालता है अथवा सम्पूर्ण स्वभावभावोंकी और लक्ष्य रखता है ( विभावभावोंको छोड़ता है) [ सं उत्सुका शिवपाश्रीः स्वयमेव पतिवरा इव परयति ] उस श्रावक । प्रती ) को बड़ी उत्सुकताके साथ स्वयं मोक्षलक्ष्मी बरण कर लेती है अर्थात् अपना पति बना लेती है। जिसप्रकार स्वयंवरमंडपमें कन्या स्वयं अपना पति चुन लेती है या पसंद कर उसके गले में माला डाल देती है यह लाभ होता है ।। १८० ।। भाधार्थ-व्रतोंकी रक्षा करनेवाला श्रावक, अर्थात् जो श्रावक अतिचार रहित व्रत पालता है वह अथवा मुनि, अहिसावतको पालकर स्वर्ग और मोक्ष तकको प्राप्ति कर सकता है, अतका इतना बड़ा माहात्म्य है जो अनुपम है, इसीलिये मुमुक्षुजन व्रत अवश्य पारते हैं.....अव्रतोपना छोड़ते हैं। इस ग्रंथमें श्रावकधर्मका व्याख्यान क्रमवार बहुत विचारके साथ किया गया है, जिससे अनादिसे भूले-भटके जीवोंको अकथनीय लाभ होगा। फलत: मारणान्तिक सल्लेखना विधिपूर्वक यदि धावक धारण करता है तो उसे १६वां स्वर्ग तक प्राप्त होता है और यदि मुनि धारण करता है तो उसको मोक्ष तक प्राप्त होता है। इस भेदका कारण अणुव्रत और महावत है अर्थात् एकदेश अहिंसा और सर्व देश अलिना है। दनि द्वारे गहमें अदा नामको अपूर्ण वीसरागता और पूर्ण बीसरागता है अस्तु । यह बुद्धिपूर्वक समाधि क्षायोपशमिक अवस्था तक अर्थात जबतक झान क्षायोपशमिक रहता है तथा चरित्र भी क्षायोपशामिक रहता है तभी तक होती है आगे नहीं यह निस्कर्ष है किम्बहुना। आगे कोई विकल्प हो नहीं होता इत्यादि समझना ।। १८०३ 880000
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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