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________________ जीव मुल्यका लक्षण ६१ संयोग पाया जाता है। इस शंकाका खंडन किया जाता है कि दो द्रव्योंके अर्थात् जीव और पुद्गलके दे नहीं हो सकते ( नकस्य द्वौ कसरी यस: यह जोक १४ में कहा है ) 1 इसी तरह एकके दो कर्म भी नहीं हो सकते इत्यादि । क्योंकि यदि दो द्रव्योंका कर्म ( कार्य ) उन्हें ( रागादिको ) माना जाय तो दोनों को उनका फल भोगना पड़ेगा ? यह दोष आयगा | परन्तु पुद्गल तो जड़ है अतएव वह तो फल ( सुखदुःखादि ) भोग नहीं सकता इत्यादि । और यदि इस दोष ( आपत्ति ) को टालने के लिए यह कहा जाय कि वे 'रामादिभावकर्म' जीव द्रव्यके हैं, तो वह न्यायके विरुद्ध होगा। क्योंकि दोनोंके संयोग ( सोझयाई) से होनेवाले फलके भोक्ता दोनों ही होंगे, एक पुद्गल या जोव अकेला नहीं हो सकता इत्यादि । तब न्याय दृष्टिसे यह निर्धार (फैसला ) किया जाता है कि 'रामादिभावकर्म' का कर्ता या भोका, ( जो कथंचित् चेतनरूप हैं आत्मा के प्रदेशों में होते हैं ) जीव द्रव्य है, और जडरूप भावhi (गुण) कर्त्ता व भोक्ता पुद्गल द्रव्य है इति । अर्थात् अशुद्धनिश्वयनयसे अशुद्धोपादान रूप जीव द्रव्य, ( संयोगीपर्याय में रहते समय ) रागादिभावकर्मका कर्ता है क्योंकि उसके प्रदेशों में ही वे होते हैं किन्तु शुद्धनिश्चयनयसे जीव द्रव्यके नहीं हैं, यतः जीवद्रव्य सबसे भिन्न है - (त्रिकाली ) शुद्धोपादानरूप है । अथवा व्यवहारनयसे वे जीवद्रव्यके हैं। क्योंकि यथार्थरूपमें विचार किया जाय तो वे औपाधिकभाव हैं अर्थात् पुद्गलकर्मकी उपाधि या संयोगसे होते है, ( विनश्वर हैं ) अतएव पुद्गल ही हैं ऐसा समझना चाहिये । इसीको स्याद्वाद या अनेकान्तकी शैलीसे कहा जाय तो कथंचित् जीवके हैं और अथंचित् पुदगलके हैं ऐसा मानना व कहना पड़ेगा fare अशुद्ध निश्चयनयसे जीवके प्रदेशों में होनेवाले रागादि भी चेतनरूप है और शुद्धनिश्चयसे वेतनरूप नहीं है अस्तु । यहाँ प्रश्न उठता है कि अशुद्ध निश्चय माननेकी क्या आवश्यकता है, एक शुद्ध निश्चय ही मानना चाहिए ? इसका उत्तर है कि--यदि अशुद्ध निश्चय या व्यवहारHarita farरोंको जीव द्रव्यके न माने जायेंगे तो जीवद्रव्य, प्रमादी व अज्ञानी बन जायगा, कोई उपाय उनके निकालनेका न गा और संसार में ही रहा जायेगा | निकलेगा नहीं । यह महान् दोष होगा । अतएव अशुद्ध ' पर्याय अवश्य है । फलतः जीव ( ( त्यागना चाहिए। इसीलिए एक यवहारयको माननेकी भी आवश्यकता संयोगी आ) रागादिका कर्त्ता व भोक्ता है, अतएव उन्हें निकालना बुद्धिका खंडन किया गया है कि- राग जन्मनि उत्तरति म ! अर्थ- जो अज्ञानी भेट { जीव ) के नहीं हैं, पर ( पु‍ संसार व मिथ्यात्वसे छुटकारा भी रागादिक हैं ऐसा मानना उदार हो सकता है ||२२११ 1 ततो परद्रव्यमेव कल्यन्ति ये तु ते वाहिनी, शुद्धवधुराम्चबुद्धयः ॥ २२१ || - समयसारकलश शून्य जीव, ऐसा एकान्त मानते हैं कि रागादिक आत्मा के ही हैं अर्थात् परके निमित्तसे ही वे उत्पन्न होते हैं। वे कभी पा सकते. मिथ्यादृष्टि संसारी ही बने रहते हैं । अतएव जीवके ए । यही अनेकान्तकी पद्धति है, उसको अपनाना चाहिये तभी 11
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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