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________________ पुरुषार्थसिधुपाय होता है। जीवद्रव्य तो उसका निमित्तरूप साथी है लेकिन भागीदार नहीं है किम्बहना । मन्त्र द्वारा मन्त्रित धूली आदिमें भी यही निर्णय ( व्यवस्था) है। अर्थात् धुलीमें स्वयं बैसी शक्ति होनेसे वह प्रकट होती है उसमें उस समय मन्त्रका पाठ निमित्त कारण है। इसी तरह जिस जीव ( व्यक्ति ) पर उस धूलीका प्रयोग किया जाता है, उसपर दुःख आपत्तिका आना या दूर होना उसीकी पर्यायरूप कार्य है जो व्यक्त होता है। वह धूली आदिका पढ़ना तो निमित्त मात्र है। वह कार्यकर्ता असल में नहीं है। नहीं तो । अन्यथा) जिसपर भी वह धूली आदि पड़तो उसके लिए भी वैसा कार्य हो जाना चाहिये परन्तु नहीं होता मन भाम है। बार अवश्य विश्वास करना चाहिये सभी वह पक्षपात रहित विवेकी समझा जायगा । निमित्त उपादानको भूल मिटाना एवं सत्य निर्णय करना, भ्रम या अज्ञानको मिटाना मुमुक्षु जोत्रका मुख्य कर्त्तव्य है। बही धर्म है वहीं कर्म हैं वही शर्म है, इत्यादि । इसी प्रसंगमें यह जान लेना भी आवश्यक है कि कोई भी कर्मकान कार्या--विना कारणके अर्थात उपादान कारणके बिना नहीं होता, जिससे उसको अकृत अर्थात निराधार-कारणरहित) माना जा । फलतः यत् यत् कार्य तत्तत् केनापि जन्य', काय स्वात् घटादिवत्' इस व्याप्तिके अनु. सार कार्य मात्र कारणपूर्वक होते हैं तथा 'उपादानकारणसदश हि कार्य भवति' यह भी नियम है । ऐसी स्थिति में भावकम व द्रव्य कर्म, इन दोनोंका निर्धार करना अनिवार्य है। भावकर्म ( रागादिविकार) का उपादानकरण अशुद्ध निश्चय नयसे जीवद्रव्य (संसारी) है, अजीवद्रव्य (पुदगलकर्म) नहीं है अर्थात भावकर्मका का स्वय' जीवद्रव्य है। और द्रव्यकर्म (ज्ञामावरणादि ) का का या उपादान कारण स्वयं पुद्गलद्रव्य है। यह सत्य निर्णय है। इसके विरुद्ध मानना गलत है। यथा- यदि भाबकर्म व द्रव्यकर्म दोनोंके कर्ता अथवा उपादान कारण, जीव और पुद्गल दोनोंको माना जाय तो उनका फल भी दोनों को भोगना पड़ेगा (सांझकी दुकानकी तरह ) परन्तु ऐसा होता नहीं है न हो सकता है कारण कि जड़ पुद्गल क्या सुखदुःख आदि भोगेगा ? असम्भव है। ऐसा समझना चाहिये' अस्तु । विशेषार्थ-भावकर्म ( रागादिरूप विकारी भाव--अशुद्धभाव ) कार्य ( जन्य हैं ) अतएव शंकाकार शंका करता है कि वे जीव और पुद्गल (द्रव्यकर्म ) दोनोंके नना चाहिये क्योंकि १. कार्यस्थापकृतं न कर्म न च तज्जोयप्रकृत्यायो रज्ञायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुगभावानुषंगात् कुतिः । नकस्याः प्रकृतेरवित्त्वलसनाज्जीयोऽस्य कर्ता ततो जीवस्यैव च कर्म तश्विदनुगं ज्ञाता न यत्पुद्गलः ॥२०३||--- समयसारकलश अर्थ:-भावकर्म ( रागादि ) व द्रव्यकर्म ( ज्ञानावरणादि ) बोनों कार्य कारण ( उपादान कर्ता ) के वे महीं हो सकते यह नियम है । अतएव अशुद्ध नि ( कर्सा) जीवद्रव्म है और द्रव्यकर्मका कारण ( कर्ता ) पुद्गल ट्रेश्य है ऐस किन्तु शद्ध निश्चयनयसे वैसा नहीं है ।।२०३ रूप हैं अतएव विमा से मायकर्मका कारण में समझना चाहिये,
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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