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________________ जीव द्रव्यका लक्षण - संदनुसार जोवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य दोनों अनादिकालसे संयुक्त [ अपृथक सिद्ध हो रहे हैं। अतएव उनके परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। और यह कथन पर्यायाश्रित होनेसे व्यवहारनयका कथन है। किन्तु निश्चयनका कथन नहीं है, कारण कि द्रव्यमें कोई विकार नहीं होता, चाहे वह संयोग पर्याय में ही क्यों न रहे। विकार तो सब हो जब एक द्रव्यका दूसरे द्रव्य में प्रवेश या तादात्म्य हो, सो वैसा कभी होता नहीं है एक दुसरेसे सदैव भिन्न रहता है। अर्थात् तादात्म्यरूप नहीं होता, संयोगरूप होता है, जिससे द्रव्यगत शुद्धता हमेशा रहती है, frent afवकारता या विकारताका अभाव कहते हैं। यह विश्लेषण समझना चाहिये, इसमें जीव बहुत भूले हुए हैं अस्तु । फलतः परस्पर निमित्तनैमितिकताका समझना अनिवार्य है, तभी भेदज्ञानी सम्यग्दृष्टि हो सकता है जो संसारसे पार होता है इत्यादि । इस तरह भावकर्म ( जीवके रामादिभाव ) और rare | ज्ञानावरणादिका उदय ) में परस्पर निमित्तनैमित्तिक सम्बन्ध समझना चाहिये ।। ५९ शंका-समाधान जो जीव अच्छी तरहसे निमित्त और उपादान को नहीं समझते न निमित्तनैमित्तिकताको हो समझते हैं वे ऐसी शंका ( प्रश्न ) अवश्य करते हैं कि कर्म ( ज्ञानावरणादि ) जो जड़ पुद्गल हैं, उनकी कोई ज्ञान नहीं है और जीव चेतन्यका स्वामी ज्ञानी ध्यानो है । फिर जड़कर्म, जीवकैसे भुला देते हैं अर्थात् विपरीत बुद्धि ( मिध्यादृष्टि ) कैसे कर देते हैं, जिससे संसारमें घूमना व दुःख भोगना पड़ता है इत्यादि ? इसी तरह चेतनजीवद्रव्य, जड़ पुद्गलद्रव्यको कर्मरूप कैसे बना देती है, जिससे वे जीवद्रव्यको ही सुख दुःख देने लगते हैं इत्यादि ? इसका समाधान इसप्रकार है कि पूर्वोक कथन व्यवहारमयकी अपेक्षाका है अतः वह अभूतार्थं कथंचित् सत्य है— सर्वथा सत्य नहीं है ) कारण कि निश्चयनयकी अपेक्षा से कोई भी द्रव्य, किसी भी orer कर्ता हर्ता भोक्ता नहीं है ( सभी स्वतन्त्र है । तब जीव पु में व पुद्गल जीवमें विकार वगैरह कुछ कर ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में पुद्गलकर्म जीव ई विकार अर्थात् विपरीत बुद्धि, रागद्वेष मोह, सुख, दुःख आदि कार्य नहीं कर सकते तथा कोई सुख-दुःख आदि देनेकी नई शक्ति नहीं पैदा कर सकती, सभी द्रव्ये, अपं स्वयंसिद्ध शक्तिके द्वारा ही करती हैं ऐसा ध्रुव नियम है । फलतः जिस समय पर्याय) विपरीत बुद्धिवाला होता है या सुखी दुःखी होता है, उस समय उसो उसीसे प्रकट होती है, कहीं अन्य जगहसे या अन्यके द्वारा नहीं प्रकट होती. बसती है और समयपर व्यक्त होती है, क्योंकि द्रव्य स्वाधीन है पराधीन नहीं। पुद्गलकर्मका उदय भी साथ में रहता है, जिससे यह भ्रम उत्पन्न हो जाता है। जड़ निमित्तने, यह सुखदुःख आदि फल दिया है जो गलत है । सुखदुःखरूप परिष होना स्वयं' जोवद्रव्यका अशुद्ध कार्य है-पुद्गलद्रव्यका लेशमात्र कार्य नहीं है, १ . अज्ञानी जीव मानते हैं इत्यादि । इसी तरह कर्मरूप परिणमत या कलदान शक्ति, ही कार्य है जो उसमें स्वयं ही उसकी अपनी योग्यता ( उपादान शक्ति ) से श्रा, पुद्गलकर्म में कार्य अपनी २ द्रव्य, (संयोगीकी वैसी पर्याय • उसी द्रव्यमें उस समय स उदयरूप ( पर्याय ) भ्रमसे प्रका पन्न )
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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