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________________ गुण आचार्य संसारपरिभ्रमणका मूल कारण बतलाते हैं कि संयोगी पर्याय में भूल जाना ( करना ) ही एकमात्र संसारका कारण है, दूसरा नहीं । यथा { विपरीत श्रद्धान व ज्ञान ही कारण है ) 14 ६२ एवमयं कर्मकृतैर्भारिसमाहितोऽपि युक्त इव । प्रतिभाति वालिशानां प्रतिभासः स खलु भवबीजम् ||१४|| पद्य 1 संयोगपर्याय माहिं जे भाव अनेकों होते हैं। ते तव मित्ररूप दोनों नहीं एक होते हैं ।। तौ भी अज्ञानी जीवों को, एकरूप rs दिखते हैं। वही भूल भषकारण जानो, ज्ञानी उसको सजते है ।" अन्वय अर्थ -- [ एवं ] पूर्वोक्तप्रकार [ अ ] यह जीवद्रव्य, संयोगीपर्याय ( मिश्रपर्याय ) में भी [ कर्मकृतंरितोऽपि ] कर्मकृत अर्थात् पाधिक या नैमित्तिक कर्मके निमित्तसे होने वाले ) रागादिक विभाव भावोंके साथ समवेत अर्थात् तादात्म्यरूप एक नहीं है तथापि [ वालज्ञान युक्त व प्रतिभाति ] अज्ञानी जीवोंको समवेतरूप अर्थात् तादात्म्यरूप एक मालूम पड़ते हैं। बस [ प्रतिभाव ] बही गलत या उल्टा (विपरीत) ज्ञान या मान्यता, [ खलु मवचजमस्ति ] संसारका बीज अर्थात् मूलकारण है ऐसा समझना चाहिये ||१४|| भावार्थ- जीवोंके संयोगीपर्याय में जो कर्मकृत अर्थात् कर्मोदय होने पर विकारीभाव अथवा auranप खोटे परिणाम होते हैं, निश्चयनयकी अपेक्षासे वे भाव, जीवद्रव्यके नहीं हैं, अर्थात् उनका जीवद्रव्य के साथ ज्ञानादिक स्वभाव भावोंकी तरह समवेत ( समाहित या तादात्म्यरूप } सम्बन्ध नहीं है अपितु संयोग संबंधमात्र है, और इसीलिये वे रागादिक विकारीभाव आत्मा ( जोवद्रव्य ) से पृथक् भी हो जाते हैं-सदैव उनका संयोग, जीवद्रव्यके साथ नहीं रहता- इस प्रकार वस्तु व्यवस्था है। तथापि अज्ञानी जीव उस व्यवस्थाको ( जो शाश्वतिक है ) भूल जाते हैं और विपरीत श्रद्धा व ज्ञान करने लगते हैं । वे मानते व कहते हैं कि वे कजनित ( औपाधिक) regure विकारीभाव ( भावकर्म तथा उनके निमित्तसे प्रकट होनेवाले पुद्गल द्रव्य के ज्ञानावरणादिभाव ( कर्मपर्याय ) परस्पर एक हैं, भिन्नर नहीं है अर्थात् जीव ( आत्मा ) और वे एक दूसरे कर्त्ता व भोक्ता हैं। जीव, कर्मों ( पुदगल कर्मों) को करता ( बनाता है और कर्म, जीव को करता अर्थात् बनाता है इत्यादि विपरीत बुद्धि ( श्रद्धान ज्ञान ) करते रहते हैं, जो मिथ्या है-वस्तुव्यवस्था या प्राकृतिक नियमके विरुद्ध है इत्यादि । फलतः उक्त प्रकारकी गलत धारणा कर लेना महान् अपराध है। जिसका फल यह होता है कि उसीमें हमेशा लीन या दत्तचित्त होनेसे, संसार व उसका दुःख नहीं छूटता, हमेशा गलती पर गलतो जीव ( अज्ञानी ) करता जाता है व सजा ( दंड ) पाता है । यही गलत मार्ग पर th
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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