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________________ परिशिष्ट maitrimestedlods है। बस यही मूलमें भूल होने व उसे निकालनेका तरीका है। देखो, परद्रव्यके साथ व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध मही होता, न तादात्म संबंध होता है, न कतकर्म सम्बन्ध होता है, सिर्फ ज्ञेयज्ञायक सम्बन्ध ही सपा काल रहता है यह तात्पर्य है । चैतम्य चमत्कार रुप दर्पणा या स्फटिको परवा प्रतिबिम्ब पड़नेपर भी दोनों पृथक् पृथक् रहते एक नहीं हो जाते ऐसा समझना चाहिये। १४. संक्षेपमें श्लोकगत विशेषताएँ व खुलासा १-श्लोक ने० १३में कथित, कर्ता और भोक्ताके सम्बन्धमें निश्चय रूपसे निर्धार यह है कि भोक्ता कभी अज्ञानी । ज्ञानदान्य जड़ ) नहीं हो सकता, किन्तु भोक्ता वही हो सकता है, जिसको भोग्यका ज्ञान हो इत्यादि गानं०६८ पंचास्तिकागसंग्रहकी टीका देखो । २.-लोक नं० ३१में कथित सम्यग्ज्ञानको प्राप्त करनेकी विधि या क्रम बतलाया गया है. उसका आशय यह है कि परीक्षा करके तस्वों को जानना चाहिए तभी बह 'अधिगमज' कहलायगा और वही पक्का होगा अर्थात् आम्नाय आदिसे परीक्षा करना अनिवार्य है क्योंकि परीक्षाप्रधानी औव मुख्य होता है, यह बुष्टिकी गई है। ३ श्लोक मं० ३२में कथित लक्षण नज्ञानमें भेद माना गया है. समका खलासा ऐसा है कि लक्षणभेद होने पर भी लक्ष्य । पदार्थ ) भेद नहीं होता ऐसा न्याय है। अर्थात लक्ष्य व लक्षपाके प्रदेश ( रहनेका स्थान ) पृथक् २ न होनेसे कथंचित् भेद नहीं है तथा नाम आदिका भेद होनेसे कथंचित् भेद भी है, ऐसा समझना चाहिये । यही बात पूज्य समन्तभद्राचार्यने भी कही है.-- द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यातिरेक्तः । प्रयोजनादिभेदाच तन्न-नात्वं न सर्वथा ॥७१॥ आममीमांसा अर्थ-द्रव्य और उसकी पर्याय दोनोंके प्रदेश अदे २ न होनेसे दोनों एक है-कथंचितभेद नहीं है किन्तु लक्षणभेद-अर्थात् दोनोंका लक्षण, प्रयोजन आदि जुदा २ होनेसे द्रव्य व पर्याय कचित् भिन्न २ हैं । इसीतरह सम्यग्दर्शन य सम्यग्दानका लक्षण जुदा २ होनेसे दोनों कथंचित् जुदे २ भी हैं। ऐसा सर्वत्र भेद व अभेद समझना चाहिये । मोट--नाम, संख्या आदि सब पर्याएँ है अतएव दे सब स्थिर नहीं रहती बदल जाती है, यह ध्यान रखना चाहिये । ४...इलोक नं० ३९में मुख्यतया वीतरागचारिलया निश्चयचारित्रका ( स्वाश्रितका ) कथन किया गया है किन्तु सरागचारित्रको छोड़ नहीं दिया गया है अपितु गौणरूप कर दिया गया है, अतएव यथावसर दोनों अपेक्षणीय हैं ( उपादेय है ) ऐसा अनेकान्त समझमा-एकान्त नहीं समझना यह तात्पर्य है। इसीलिये चारित्रधारियों ( साधुओं के तीन भेव किये गये है। ( समयसार ) अर्थात् ( १ ) केवल बाह्य परिग्रह त्यागी ( शुभाशुभपरिणाम सहित ) । (२) अन्तरंग परिग्रह त्यागी ( अशुभपरिणाम रहित ) । (३) धर्म ( शुभरागरूप ) परिग्रहत्यागो । बायपरिग्रह वनवान्यादि तथा अन्तरंग परिग्रह ( मोह या अशुभ-शुभभाव) त्यागी अथवा, सर्वत्यागी, शुद्धोपयोगी वीतरागी-आत्मध्यानी। ऐसे गुणस्थानों के अनुसार नम्बरवार, जघन्यमध्यम-उत्कृष्ट भेदवाले कहेगये हैं उसका तात्पर्य समझना चाहिये । ... ५-दलोक नं० ४६ में मुख्यता स्वाधीनता ( स्वाचितपना )की बतलाई गई है, पराधीनता ( पराश्रितपना )की मुख्पता नहीं बतलाई गई, यह तात्पर्य है । पराधीनता निमित्त कारणमें शामिल है, उपादानकारणमें PEOANTARPRAMnelleryremientatam
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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