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________________ परिग्रहपरिमाणावत . हिंसाकी पर्याय कहेसे अदि हिंसा मानी जावे। अन्तरंग परिग्रहमे मित्रो ! श्वाश परिग्रहमें धा ।। जब कोई जन माया वस्तुको ग्रहण करे मन ललचाये। यही रूप हिंसाका शानो-शंका सबकी मिट जावे ॥१९॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ अन्तरंगसंगेषु हिमापर्यायच्यात हिंसा रिना ] यदि कोई अन्तरंग परिग्रहमें हिसाकी पर्याय होने से, हिंसाका होना मान लेता है । ( मंजूर करता है)। कोई विवाद न हो) तो फिर तुलहिन संगेषु निरतं-रातु बहिर परिग्रहमें जो मुर्छा ( ममता आदि) होती है बस वही तो हिसा है। अतएव निमित्तताको अपेक्षासे बाह्य परिग्रहकी नाई ( तरह ) हिला निर्विवाद सिद्ध होती है- यह सबको मानना चाहिये ।।११।। भावार्थ.-..-मूछ का होना ही हिसा है, सो वह मूर्छा अन्तरंग परिग्रहमें भी होती है { रागद्वेषादिभावरूप ) और बाह्य परिग्रहमें भी होती है। तब दोनों में समानता होने के कारण "दोनों ही परिग्रह हेय हैं। क्योंकि हिंसारूप कार्य दोनों करते हैं। आत्मा मूच्र्छा अर्थात् रागपरिणति, स्वयं ही उदयमें आती है । प्रकट ही है ) और परवस्तु ( बायवस्तु के दर्शन, स्पर्शन, ग्रहण आदि निमित्तसे भी उदोरणारूप नैमित्तिक होती है, यह तात्पर्य है। अस्तु, हिंसा दोनों तरहसे होती है अर्थात स्वयं उदयमें आनेपर या दमरोंके द्वारा उदयमें लानेपर, उसमें अन्तर कछ नहीं होता। ऐसा समझना चाहिये। स्वाभाविक या नैमित्तिक दो भेद अवश्य माने गये हैं, जो कारणताकी अपेक्षासे.कार्थकी अपेक्षासे नहीं हैं। अस्त उक्त समाधान सही है व मान्य है इतिभावः । निष्कर्ष अध्यवसायभाव ( विकारोभाव । सर्वथा त्याज्य है क्योंकि आत्मामें बन्धक साक्षात् कारण वे ही हैं, ( उससे आत्मा स्वयं बंध जाती है । परन्तु वे भो कर्मबन्धके प्रति निमित्तरूप ही हैं। निश्चयसे उपादानरूप कार्माणद्रव्यगत रूप रस गंध स्पर्श ही हैं। अतएव रागादिरूप अध्यक्सानभानोंको कर्मबन्धका कारण मानना उपचार या व्यवहार है। और आत्मबन्ध (जीवबन्ध के प्रति रागादि विकारीभावों ( अध्यवसानों को कारण मानना अशुद्धनिश्चयनसे सत्य है ( भूतार्थ है ) उपचार या व्यवहार नहीं है । तब बाहिरी बाह्य कारण { पर द्रव्य-इन्द्रियविषय) सब निमित्त कारण हैं इत्यादि । अतएव वे बाह्य निमित्त स्वयं हिंसारूप नहीं हैं किन्तु हिंसाके निमित्त है लेकिन कब जब उनके जरिये रागादिक विकार हो तब, अन्यथा नहीं हैं ऐसा सारांश समझना चाहिये। किम्बहना--जो जीव सिर्फ बाह्य वस्तुओंके वियोग करने कारणवश त्यागने । को हो मुख्यत्याग मानते हैं व उनके त्यागसे त्यागी होना मानते हैं वे एकान्ती-अज्ञानी है पतः तत्त्वज्ञानपूर्वक मुख्यत्याग विकारों ( कषायों का त्याग करना है ॥११॥ शंकाक्रार ( वादो ) शंका करता है कि यदि मच्छ का नाम परिग्रह रखा जाये तो फिर परिग्रहमें कोई भेद न होगा-सभी जीव एकसे परिग्रहवाले समझे जावेंगे ?
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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