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________________ पशिणहरिमामाशुषत ११९ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं [ या इथं मूळ नाम ] जो यह मूछा है अर्थात् जिसको लोकमें मूच्छा नामसे कहा जाता है, [ हि पुषः परिमहः ज्ञातव्य: ] निल्नयसे उसी का नाम परिग्रह है ऐसा समझा दिये दिन और परिग्रहमें कोई भेद नहीं है। कारण कि [ तु माहोदयात् उदीण; ममस्वपरिणामः मूरा ) क्योंकि मोहकमके उदय से जो ममतारूप अर्थात् रागमा ( मेग यह है । परिणाम ( भात्र ) होता है उसीका दूसरा नाम 'मूछी है। मूछका अन्तरंग निमित्तकारण मोहका उदय है ॥ १११। भावार्थ-मूछो नामका परिग्रह अन्तरंग परिग्रह कहलाता है और धनधान्यादि बाद्यपदार्थ, बाह्य या बहिरंग परिग्रह कहलाता है ! जब पूर्ण रूपसे दोनोंका त्याग हो जाता है तन्न जीव पूर्ण स्यागो-निष्परिग्रही-चोतरागी कहलाता है या कहा जा सकता है । उसको किसी तरहकी इच्छा नहीं रहती, अन्यथा वह परिग्रही होने से मोक्ष नहीं जा सकता, यह तात्पर्य है । इच्छा, बांछा, अभि. लाषा, ममता, राग, द्वेषादि ये सब ही परिग्रहमें ( अन्तरंग ) शामिल हैं। उनके रहते हुए प्रमाद पाया जाता है जिससे द्रव्य और भाजहिलाका होना अनिवार्य है बस वही पात्र हैं। अतएब यह परिग्रह त्याज्य ही है विकार या पर है किम्बहुना । मानो विवेकी जीव परिग्रहका त्याग अवश्य करें, क्योंकि वह संसारका कारण है। संसार व मोक्ष ये दोनों आस्माको ही पर्याय है। आत्माकी विकारी पर्याय संसार है और शुद्ध पर्याय ( विकार हित पर्याय ) मोक्ष है । फलतः बाह्य पदार्थोके संयोगमें न संसार है, न उनके वियोग ( त्याग ) में मोक्ष है ऐसा समझना चाहिए इत्यादि । उक्तं च..... झानिनो न हि परिग्रहभान कम रागसमरिकतयति । रंगयुझिरषावितवस्ये स्वीकृतव हि वहिल उतीर ।। १४८ । समयमारकलश अर्थ--ज्ञानी आत्माके पास कर्म, राग ( रुचि या चिकनाई )का अभाव होनेसे परिग्रहपनेको प्राप्त नहीं होते अर्थात् अधिक समयता नहीं ठहरते । वैराग्य परिणति होने से उनकी स्थिति अनुभाग घट जाता है और वे जल्दी नष्ट हो जाते हैं ) जिस तरह विना कषायले रसके (चिकनाईके ) कपडाका रंग जल्दी छूट जाता है अधिक समयतक नहीं टिकता, ऐसी विशेषता समझना चाहिए । विकार ही नुकसान पहुंचाता है । मूच्र्छा भी विकार है रागका भेद है ॥१११।। नोट--सम्यग्दृष्टि जीत्र भोगोंको भोगता हुआ भी उनमें रुचि नहीं रखता, अपितु अरुचि रखता है वह उन्हें विगारी की तरह भोगता है यह भाव है ॥१११|| ___ आचार्य मूर्छा और परिग्रहके सम्बन्धमें होने वाली शंकाका खण्डन कर समाधान करते हैं। मृच्छीलक्षणकरणात सुघटा व्याप्तिः परिग्रहत्वस्य । सग्रन्थो मूर्छावान् विनापि किल शेषसंगेभ्यः ॥११२।। १. ममता, चाह, राग, रुचि आदि सब विकारी भाव । २. परिपवहित अर्थात् पहिसन्हवाला। ३. धनधान्यादि बाह्मपरिग्रह विना ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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