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________________ २७. প্রধাঘলিমুথায় मूळ नाम परिग्रह का है-एसी व्याप्ति परस्पर है। जहाँ मुर्छा पाई जाती-वहाँ परिग्रह निश्चित है ।। अतः विना धनधन्यादि के भी जिनके ममता होती है। ये सब होत परिग्रह धारी व्याप्ति उसी से बनती है ॥११॥ मन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ मूसालक्षणकरणात परिग्रहावस्त्र व्याप्तिः सुघटा ] अभी नं. १११ के श्लोकमें जो मुर्छा या परिग्रहका लक्षण बताया गया है वह दोष सहित अर्थात् अव्याप्ति दोषवाला नहीं है किन्तु व्याप्ति सहित निदोष है क्योंकि जहाँ-जहाँ मूछा ( अन्तरंग परिग्रहरूप ममताभाव रुचि । पाई जाती है, वहाँ-वहाँ परिग्रह बराबर है। फलतः [किल शेषसगेभ्यः विनापि मूल्यवान् म प्रायो भवति ] निश्चयसे यदि किसीके...बाह्य धनधान्यादि परिग्रह न भी हो और मज़ या ममता या रुचि या चाह हो तो अवश्य ही नियमसे वह परिग्रही समझा जाता है अर्थात् उसको परिग्रहवाला समझना चाहिए। कारण कि असली परिग्रह तो अन्तरंगपरिग्रह । विकारीभाव ) कहलाता है। सतन उर्युक्त र लामा, रूपाण सुलक्षण है अर्थात अतिव्याप्ति आदि तोनों दोषोंसे रहित है ।।११२।। भावार्थ--बाह्य धनधान्यादिको परिग्रह उपचार ( व्यवहार ) से माना गया है अर्थात् मूर्छाका निमित्तकारण होनेसे, उसका परिग्रह मान लिया है। असल में परिग्रह ममत्व आदिरूप विकारोभाव हैं। ऐसी हालतमें यदि बाह्य परिग्रह ( धनधान्यादि किसीके न भी हो ( जैसे गरीब मनुष्य, पशु-पक्षी आदि ) परन्तु उसकी चाह ( रुचि ) या अभिलाषा होनेसे वह निःसन्देह परिग्रही है वह संसारका पात्र है। फलतः पहिले मूल ( अन्तरंग ) परिग्रहका त्याग करना चाहिए तभी वह परिग्रह त्यागी कहा जा सकता है। बाह्यपरिग्रह तो अपने-आप छूट जाता है या छूटा-सा है, कारण कि जब उसको ग्रहण करनेवाला या अपनानेवाला राग न होगा तब न काययोग ग्रहणक्रिया करेगा (प्रयत्न या व्यापार न करेगा ) न बचनयोग कुछ करेगा सब वहीं जहाँका-तहां धरा रहेगा, इत्यादि फिर उसका ग्रहण कैसे होगा? नहीं होगा, यह विचारिये । इसके सिवाय कदाचित् वह बाह्य परिग्रह वस्तु स्वभाबसे स्वयं आ जाय या कोई दूसरा जीव पास पहुँचा देवे तो क्या विना राग या स्वामित्वके उसका वह हो जायगा ? नहीं होगा ऐसा परस्पर संयोग-वियोग तो हर समय हर एकके होता ही रहता है। परन्तु वह अपराधी'या चोर परिग्रही नहीं हो जाता, जबतब राग या रुचि न हो । फलत: विना ममता ( मुर्छा ) के कोई परिग्रही नहीं होता यह तात्पर्य है । अस्तु । आगे इसीके सम्बन्धमें प्रश्नोत्तर किया जायगा ॥११२॥ परिग्रहके पूर्वोक्त लक्षण करनेसे सिर्फ अन्तरंग परिग्रह ही मुख्यतया परिग्रह सिद्ध होता है और बही हिंसा पापका कारण माना जा सकता है अताएब उसीको मानना चाहिये, शेष दश प्रकारको धनधान्यादि बाह्य वस्तुओंको परिग्रह मानना व्यर्थ है ? उनको परिग्रह नहीं मानना चाहिये । बाह्यके १० भेद हैं ) इसका समाधान आचार्य करते हैं।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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