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________________ o पुरुषार्थसिधुपाय dise पद्य जीवधातका मो श्यागी है उसको यह सप वर्जित है । कर संकल्प छेदना परकी, मार मगामा-बोधन है॥ मूख प्यासकी बाधा देना, बोझ अधिकका धरना है। ये सब अतिचार हैं तजना, बती पुरुषका करना है।॥ ११३ ॥ अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ छेदनत्ताडनबंधाः ] दुष्ट इरादा या संकल्पसे ( कषायबश) किसी जीवको छेदना अर्थात उसके नाककान आदिको गोदना-काटना, सस्त मारना-पीटना, कसकर बाँधना, जिससे वह ठीक उठजेट भो न सके तथा समाधिस्थ मारस्यारोषणं प्रमाणसे अधिक बोझ ( भार ) लादना, [च असपामयो रोधः ] और खाना-पीना बन्द कर देना (खाने-पीने को नहीं देना ) [ इति पंचाहिसावतस्य अतिचाराः ] ये सभी । पाँच ) अहिंसाणुवतके अतिचार हैं, इनका त्याग अहिंसाणुव्रतीको अवश्य करना चाहिये ।। १८३ ॥' भावार्थ----जैन मतमें भावोंकी प्रधानता रहती है अतएव जो भी लोकका या परलोकका ( इस भवका या परभवका ) कार्य किया जाय उसमें फल भावोंका हो मिलेगा। ऐसी स्थिति में जबतक कषायका सम्बन्ध जीवके साथ है तबतक उसको इच्छानुसार कार्य तो करना ही पड़ते हैं. परन्त उस समय यदि खोटा इरादा हो अर्थात त्रास देने या बदला लेने की भावना न हो तो उसका फल उसको, स्वार्थ होने पर भी बुरा प्राप्त न होगा अर्थात् वह मैमित्तिक अपराधसे बच जायगा यह तात्पर्य है। तभी तो सावधानी रखनेका उपदेश दिया गया है कारण कि प्रमाद या तीनकषायमें असावधानी हो जाया करती है । यद्यपि निश्चयसे पराश्रित अपराध नहीं होता तथापि व्यवहारसे अपराध होना माना जाता है, अतः विवेकी पुरुषोंको वह भी बचाना चाहिये जिससे लोकापवाद न हो, संक्लेशता न बढ़े, पापबंध न हो इत्यादि ।। १८३ ।। नोट.....यदि इरादा ( संकल्प ) खराब न हो और किसी बीमारी आदिके समय संक्लेशता या वाधा मिटाने को आपरेशन आदि कराना पड़े तो वह पद व योग्यताके अनुसार दोषाधायक ( अनुचित ) नहीं है। कभी-कभी लोकनोति के अनुसार ताड़ना भी सुधार होनेको या भलाईको दृष्टिसे वर्जनीय नहीं है, सिर्फ असह्यपना या अत्यधिक कठोरपना नहीं होना चाहिये। क्रूरता सर्वत्र वर्जनीय है किम्बहुना । भावप्राणोंका घात होना हो हिंसा है वह भी बतीको बचाना चाहिये यह उसका कर्तव्य है । व्रती यथासंभव द्रव्य और भाव दोनों हिंसाओंको बचाता है, कारण कि त या चारित्र तो शुद्ध वीतरागतारूप होता है---अशुद्ध रागद्वेषरूप नहीं होता। ब्रत, गुण या स्वभावरूप है-दोष या विकार (विभाव ) रूप नहीं है, यह हमेशा याद रखना चाहिये। १. अहिंसाणुप्रती है। २. रोक लगाना। ३. वषबंधछेदातिभारारोपणानपाननिरोधाः ।। २५ ।।त. सू० अध्याय ७।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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