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________________ ::misstarma पुरुषार्थसिधुपाप आगे आचार्य प्रोषधोपवासका फल बतलाते हैं। इति यः पोडशयामान् गमयति परिमुक्त सकलसावधः । तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसावतं भवति ॥१५७।। समय EARSHATARNARY S . . ...... अखिल क्रियाओंको सजकरके 7 सपालन करता है । सोलह पहर नियम है उसके पूर्ण अहिंसक बनता है ।। यदपि अहिंसक निश्चयस नहि, बाहिर बैसा दिखता है। मन्दपाय मुख्य है कारण दयाधर्मको घरमा है ॥१५॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ इति यः परिमुझसकलसानग्रः पशयामान गममति जो व्रती पूर्वोक्त प्रकार से सम्पुर्ण पापक्रियाओं को त्यागकर १६ सलह पहरतक निदोष रहता | तस्य सादानी रियत पूर्णमहिमानतं भवति उसके उतने समयलक ( १६ पहातक ) नियमले । अहिसानत होता है ( सदैव नहीं होता है ) ऐसा समझकर भाबकको प्रोषधापयास अवश्य चाहिये । उसे बड़ा लाभ होता है ।।१५७|| भावार्थ- सबसे बड़ा और निश्चयधर्म 'अहिंसा' ही है, उसके बराबर दूसरा कोई नहीं है कारण कि वह शुद्ध स्वभात वीतरागतरूप है जिससे मोक्षकी प्राप्ति होती है. यह लामा है । ऐसी स्थिति में यदि वह्न १६ पहरतक हो होता है अर्थात् पापक्रियाओं को अचिके साथ देता है तो उसके निमित्तसे असंख्यात गुणित कर्मोको निर्जरा प्रति समय होने लगती है। श्रेणी निर्जरा ) यह क्या कम लाभ है ? महान् लाभ है, जोवन में सफलता प्राप्त करना है। प्रधा उसीके साथ जितना बतसंयम धारण करनेका शुभराग या धर्मानुराग होता है और जोयरमा ( दया करता के भाव होते हैं, उससे पुण्यका बंध होता है, जिससे उस धर्मसे संसारमें सूताः । सुख प्रान होते हैं, फलतः उसको भी धर्म कहते हैं। परन्तु मोक्ष नहीं मिलता, अतएव उसका व्यवहारमय धर्म कहा जाता है। फिर भी दोनों धौके पालनेसे लाभ ही होता है घाटा की। होता। ऐसा सापाकर धर्म नहीं छोड़ना चाहिये, किम्बहुना 1 बस तोम तरहके माने जाते हैं { १ नियमरूप अर्थात् अन्तरंगमें प्रतिज्ञा या संकल आखड़ी करने रूप कि ऐसा करेंगे इत्यादि अथवा थोड़ा-थोड़ा श्रत पालना अभ्यास रूपसे ।। शुभ कार्य में प्रवृत्ति करने हए जैसे कि शुक्रियाएं करना, दया करना, दान पुण्य करना पता प्रभावना आदि धार्मिक कार्य करना, व्रतसंयमादिका पालना, मुनिदेष धारण करना, (२) अर या खोटे कामोंको छोड़ना कप, पापक्रियाओंका छोड़ना, हिंसादि न करना। १. 'उक्तं संकल्पपूर्वक: संये नियमोशभकर्मणः । निवृत्तिर्वा बर्त स्यामा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि 10 || सागारधर्मा० अ०२
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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