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________________ প্রাথশিবায় आचार्य और भी परिणामों के भेदसे ४ चार प्रकारका फलभेद बतलाते हैं प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । प्रारभ्यकर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥ ५४ ॥ हिंसाका संकल्प कियेसे बिन हिंसा फल मिलता है। करते करते किम्मो बीचको सुरत हिंसफर मिलता है॥ किसी जीचको कर चुकनेपर पीछे ही फल मिलता है। करनेका श्रारम्म किये ही अकृत फल पा लेता है || ४ || अन्वय अर्थ...आचार्य कहते हैं कि [ अनुभावन हिंसा प्रागन फलति । अभिप्राय या भावोंके अनुसार या भावनाके अनुसार, कोई हिंसा न होनेपर भी ( जीवघातके पूर्व हो ) अपना फल जोत्रको दे देती है, अर्थात किसी जीवने हिंसा करनेका संकल्प या विचार तो किया परन्तु किसी कारणवश हिंसा नहीं कर पाई-पीछे हिंसा करनेका मौका मिला। इस दरम्यानमें भावोंके अनुसार जो पापका बंध हुआ था वह उदय में आकर दुःख पोड़ा देने लगता है, यह विना हिंसा किये पहिले हो फल मिलनेका उदाहरण समझना चाहिये । [क्रियमा हिंसा लिति ] और कोई हिंसा ( प्राणघात) ऐसी होती है कि करते समय ही उदयमें आकर अपना फल जीव को दे देती है। अर्थात् हिंसा रूप कार्य करते समय हो पाप बंध और तुरंत ही उदयमें आकर दुःख पीड़ा देती है। यह दूसरा उदाहरण समझना और [ कृनापि हिस्सा फलति ] कोई हिंसा, हो चुकने के पश्चात् जीवको अपना फल देती है। अर्थात् हिंसा के समय हुआ पापका बँध, जब उदयमें आवेगा तभी अपना दुःख म्ए फल देगा, यह हिंसा का तीसरा उदाहरण समझना [ अणि कर्नमारभ्य अकृता हिंसा फलप्त ] और कोई हिंसा ऐसी है कि वर्तमानमें न होकर भविष्यमें होगा किन्तु उसके लिये पेश्वरसे साधन इकट्टे कर रहा हो, वह हिसा ( भविष्यमाण ) अपना फल जीवका होने के पहिले हो । दुःखादि ) दे देती है। यह हिंसाका चौथा उदाहरण है। भावार्थ-यह सब परिणामों के अनुसार ही फलमें विचित्रता ( भेद ) है ऐसा समझना चाहिये । इसी हिंसाको यदि १ संकल्पी २ उद्योगी ३ आरंभी ४ विरोधी, इन सब शब्दोंमें कहा जाय तो भी अनुचित न होगा। अथवा १ कृत ( भूत ) २ क्रियमाण ( वर्तमान ) ३ प्रारभ्यमाण ( अपूर्ण वर्तमान ) ४ करिष्यमाण ( भविष्यत् ) इन शब्दों में भी विभाग किया जा सकता है अस्तु । यह सब कथन शैली है लक्ष्य सबका एक ही है-पापबंधका होना व दुःख देना । अतएव उसे हटानेका पुरुषार्थ करना चाहिये, यह तात्पर्य है ॥५४॥ मागे आचार्य और भी भेद बतला रहे हैं। एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसाफलमुग्भवत्येकः ।। ५५ ॥ १. अभिप्राय के अनुसार फल देती है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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