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सम्माचारिख
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पच
कोई एक हिमा करता है कल भागी बहु होते हैं। बहु हिंसा करते हैं तो भी फल भागी इक होते हैं ।। है विचित्रता परिणामोंकी एकभासि नहीं होते हैं।
जिसके जैसे भाव होत हैं वैसा ही फल पाते हैं ॥५५॥ अन्वयअर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ एफ: हिमां करोति बहवः फलभागिनो भवम्ति ] एक कोई जो हिंसा ( प्रा .रता है । हिसाका { दुखादि ) बहुत जीव भोगते हैं अर्थात् प्राणघात करते समय या हो जानेपर जो जीव खुशी या प्रसन्न होते हैं व उसका समर्थन व अनुमोदन करते हैं वे सभी पापके भागी होते हैं । इसी तरह [ बहवो हिंसा विदधति, हिंसाफलभुक यक भात ] बहुतसे जीव हिंसा करते हैं, किन्तु हिंसाका फल एक ही जीव भोगता है जैसे कि राजा युद्ध सिपाहियों । सैनिकों ) से कराता है किन्तु उस पापका भागी वह राजा ही ( स्वामी) होता है, सैनिक नहीं । कारण कि वही अपने का उसका कर्ता मानता है व साधन समाग्रो ( निमित्त ) मिलाता है ऐसा समझना चाहिये।
पद्य दूसरा एक जीव हिंसा करता हैं फल मिलता बहुतेरों को। बहुत जीव हिंसा करते हैं फल मिलता है एकाह को ।। फल मिलता है भाषों से ही जिसके जैसे भाव बने ।
उमक माफिक फल मिलता है किया बने या नहीं बने ।।५।। भावार्थ-अपराध कई तरहसे लगता या होता है अर्थात् (१) स्वयं करनेसे अपराध होता है । कृत) (२) दूसरोसे करवाने पर अपराध होता है । कारित) (३) अनुमोदन या समर्थन करनेसे अपराध होता है (अनुमोदित ) (४) करने का इरादा करनेसे अपराध होता है। संकल्पित)। तदनुसार अनेक जीवोंसे कराया गया अपराध युद्धादि हिंसक कार्य ) का फल एक अधिकारी जीवको ही भोगना पड़ता है इत्यादि यह फलभोकाका उदाहरण है। और बहुफल भोक्ताका उदाहरण अनुमोदन करने वालोंका है। इस तरह परिणामोंके अनुसार फलभेद बताया जाता है। किन्हीं खोटे कामोंका देखकर प्रसन्न होना खुशी व हर्ष मनाना यह भी वर्जनीय है क्योंकि विना . खुद किये भी सजा भोगना पड़ती है। अतएव अपनेको सबसे पृथक ( अस्पृष्ट-अछूत ) रखने पर ही कल्याण हो सकता है यह सारांश है । लौकिक न्याय और पारलौकिक न्यायमें भेद रहता है। यह भी समझना चाहिए । एकान्त नहीं रखना ।। ५५ ।।
दूसरी तरहसे फलभेव बतलाते हैं कस्यापि दिशति हिसा हिमाफलमेकमेव फलकाले । अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम् ॥५६॥