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________________ पुरुषार्थसिद्धथुपार्थ पछ धर्म पास होता है सबको देवोंकी प्रसम्मप्तासे। देव प्रसन्न होत हैं सब ही उमको बलि चढ़ामेसे ।। AMS Ha इस दुर्चुदिमें पक्षकार मित्रों ! जीय मारना खामी' है ।। अस्थय अर्थ-वैदिक मतवाले कहते हैं कि [हि देवसाभ्यः धर्मः प्रभवति ] यदि वास्तव में विचार किया जाय तो 'धर्मके दाता या अधिष्ठाता देवता ही हैं क्योंकि उन्हींका सब है। अतः उनकी प्रसन्नता या सेवा ( आराधना ) से ही हम सबको धर्मकी प्राप्ति होती है अन्यथा नहीं । फलतः [ इह ताभ्यः सर्व देयम् ] उन देवताओंके लिये इस लोकमें सभी वस्तुएं समर्पण कर देना चाहिये अर्थात् चढ़ा देना चाहिये, हिचकिचाना नहीं चाहिये । इति पुत्रियकालमा धितो प्राय देहिनो न हिंस्याः ] आचार्य इस अविवेकपूर्ण विचारधारा या कार्यवाहीका खंडन करते हैं कि कि 'कोई भी समझदार विद्वान् उक्त दुष्टतापूर्ण भ्रष्टाचार फैलाने वाले कुमार्गके उपदेशमें बहक कर 'जीवोंको हिंसा न करें क्योंकि हिंसा कभी धर्म नहीं हो सकता इत्यादि । देखो, देवता लोग कभी मांस मधु मदिरा जेसी निकृष्ट ( अपवित्र ) वस्तुओंका स्तेमाल नहीं करते थे अमृतपायो होते हैं। उनको प्रसन्नताके खातिर बलि चढ़ानेकी बात कहना, उनकी निन्दा करना है। ऐसे जीय देवनिन्दक हैं- देवभक्त नहीं हैं ।। ८० ॥ भावार्थ--अज्ञानी विषयकषायको पोषण करनेवाले लोग ही स्वार्थवश खोटे शास्त्रोंकी रचना करते हैं जोर उनमें स्वार्थवश देवता आदिको आड़ { ओट में अपने स्वार्थकी सिद्धि करते हैं । जिन्हें स्वयं पापसे भय नहीं है, निर्भय होकर पाप कार्य करते हैं, हिंसा-झूठ चोरी कुशील-परिग्रहसंचय आदि पांचों पापोंमें प्रवृत्ति करते एवं संलग्न रहते है वे अपने पापों और पापमय प्रवृत्तियोंको छिपाने या पुष्ट करने के लिये ही अपनी कलम ( लेख )से शास्त्रोंमें उनकी वैधता लिख देते हैं और उसकी दुहाई देकर घोर पाप करके आजीविका ( रोजी) चलाते रहते हैं । ऐसे जीव नरकगामी घोर पापी समझे जाते हैं जो शास्त्रोंमें असंभव दुराचारपूर्ण बातें भर देते हैं । जिन शास्त्रोंमें लोकविरुद्ध ( नैतिकताके विपरीत ) कथन पाया जावे वे शास्त्र नहीं, शस्त्र हैं ! और उनके कर्ता ( लेखक ) अज्ञानी विषयकषायी हैं। उन शास्त्रोंका आदर करना, उनकी बात मानना व्यर्थ है अस्तु । देवताओं, गुरुओं आदिके नामपूर पापाचरण करना बोर अन्याय है ! देवता या गुरु कुकर्म करनेसे (जीवहिंसा, मदिरापान आदिसे ) प्रसन्न नहीं होते और धर्म उनके हाथ में नहीं हैं, धर्म प्रत्येक जोधके हाथमें है और वह सदाचार पालने से होता है 'जियो और जीने दो' के सिद्धान्त पालनेसे धर्म होता है। अनार्योने हो स्वार्थवश हिंसाको धर्मका रूप दिया है आोंने नहीं दिया है। शास्त्रों में एकमत । एकरूपता ) नहीं है, कोई कुछ बताता है तो कोई कुछ बताता है, क्या सही माना जाय? १. ख़तरा या हानि, धर्मकी प्राप्ति नहीं होती है उल्टा अधर्म प्राप्त होता है इत्यादि । २. आराधना-सेबा। u stomised .in
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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