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________________ पुरुषार्थसिदधुपाये वही इष्य हिंसा है जिसमें, दृष्यप्राय धाते जाते । अत: प्याग उसका बतलाया, धर्मपालने के नाते ।।१३॥ अभिमानादिक जे भाई विकारी बे भी उससे होते है। जनसे मी हिंसा होती है भानप्राय मश जाते है। हिंसाकी पर्याय बिकारीभाव, सदा माने जाने । उनसे सुधबुध नष्ट होत हैं, अचेत दशा दोनों करते ॥६५॥ अन्यय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [वाम रमजान बहना जीवन यामिः पयलें] पुनः (फिर] तरलता या गोलापन ( रसरूप । से हमेशा उत्पन्न होनेवाले जीवोंकी योनिरूप ( उत्पत्ति स्थान ) वह मदिरा है अर्थात् असंख्याते इस जीव उसमें सदैव उत्पन्न होते रहते हैं तब [ मधं भजता तेषा अवश्य हिरा संमायते ] उस मद्यका पान करने वालोंके जन जीवोंका घास होनेसे हिंसा पाप अवश्य ही होता है अर्थात् उनके द्रव्यहिंसा सदैव हुआ करती है ऐसा समझना चाहिये ॥६३॥ इसी तरह [1] और सस्कसन्निहिताः अभिमानभयझुगुप्साहास्यारतिशोककामकोपाथा: हिंसायाः पर्यायाः सर्वपि भवति] मदिराके हो समान स्वभाव या कार्यवाले अंर्थात् अचेतता उत्सन्न करनेवाले ( होसहवास निगाड़नेवाले विवेक रहित बनानेवाले ) अहंकार, (घमण्ड गर्व ) भय, ( शंका ) घृणा, ( ग्लानि-द्वेष ) हँसी, अप्रोति, शोक, विषयसेवनको इच्छा, क्रोध आदि विकारोभाव भी मदिरापान करनेवालों के होते हैं जो कि हिंसाके ही पर्यायवाची शब्द या नाम हैं कारण कि वे भी जीवके स्वभावोंको घालते हैं, नहीं होने देते यह भाव है। तब दोनोंका समान स्वभाव या कार्य ." होनेसे दोनों निकट सम्बन्धी हैं ऐसा समझना चाहिये अथवा उनका परस्पर निमित्तनैमि सम्बन्ध है यह विश्वास करना चाहिये । मदिरा निमित्तकारण है और विकारीभाव (अभिमान नैमित्तिक हैं ऐसा खुलासा है । इनसे भाव हिंसा होती है यह भेद है । परन्तु दोनों त्याज्य { भावार्य-हिसाए सो दोनों ( द्रव्य व भाव ) बुरी हैं, अधर्म रूप हैं अत: उनका सम्प, या संयोग छोड़ना अनिवार्य है, परन्तु उनका छुटना क्रमसे होता है। संयोगी पर्याय में सभीका संयोग एक साथ नहीं छूटता। ऐसी स्थितिमें पेश्तर लोकाचारके अनुसार बाह्य द्रव्याहिंसाका त्याग तो योग्यतानुसार करना ही चाहिये ( इसो में पांचों पापोंका त्याग शामिल रहता है ) । उसो दृष्य हिंसाको बचानेके लिये बाहिर मदिरादिकका त्याग कराया जाता है। द्रव्यहिसाके विषय में पं. आशाधरजी अपने ग्रन्थ सागारधर्मामुतमें लिखते हैं कि..... यक्षेकविन्दोः प्रचरन्ति औधाश्चैप्सत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । 'यद्विक्सवाश्चममुच लोक अस्थति तस्कश्यमवश्यमस्येत् ६१ -सागार. १. सेवक । २. मदिरा।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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