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________________ धर्मप्रातिको भूमिका १९९ मोहितचित्तः धर्म विस्मरति ] और मच्छित या विवेकहीन जीव, धर्म या कर्तव्यको भूल जाता है या उसको कर्तव्य अकर्तव्यका ज्ञान नहीं रहता तब [ विस्मृतधर्मा जाव; अधिशक हिंसामाचति ] धर्मको भूल जानेवाला जीव निर्भय और निरंकुश ( स्वच्छंद ) होकर हिंसापाएको करने लगता है, यह भतीजा होता है----द्रव्य और भाव दोनों हिंसाए करता है ।। ६२ ।। भावार्थ- परिणाम { चित्त या भाव ) खराब होनेसे अर्थात् तरह २ के कुविचार ( विकल्प) होनेसे भाबहिसा होती है ( स्वभावभाव घाते जाते हैं ) और उन मदिरा आदि पदाथो अनगिनत जब होनेसे उनका घात होनेपर द्रव्याहिंसा भरपूर होती है तथा बड़े-बड़े लोकनिन्द्य काम यह कर डालता है, जिससे भयंकर दण्ड आदि इसी लोकमें वह पाता है लोग उससे घृणा करते है--द्रव्य नष्ट होता है इत्यादि अनेक हानियां होती हैं, अतएव वह सर्वथा त्याज्य है । मद्यपायीको दुर्दशा इस लोक और परलोक दोनों में होता है, वह लोकमें मार खाता है, उसके जहाँ-तहा गिर पड़नेसे हाथपांच शिर घायल हो जाते है, अनुचि स्थानमें वेहोश पड़ा रहता है, कुत्ते भी पेशाब कर देते हैं वह मुर्दा जैसा पड़ा-पड़ा सब सहन करता है इत्यादि सजा मिलती है तथा परलोकमें खोटा बन्ध होने के कारण असह्य भरकादिके दुःख भोगना पड़ते हैं, इत्यादि बुराइयाँ बतलाई' जाती हैं अस्तु। मदिरा पीने वालोंका स्वास्थ्य भी बिगड़ जाता है। दमा, खांसी होते हैं उनके फेफड़े खराब हो जाते है और हार्ट फेल भी हो जाता है इत्यादि हानि होती है अतः हेय है ।। ६२ ।। आगे पुनः अहिंसा और भावहिसा दोनों मदिरापानसे होती हैं यह बतलाते हैं रसजानां च बहूनां जीवानां योनि रिष्यते मद्यम् । मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् ॥१३॥ अभिमानभपजुगुप्सा हास्यारतिशोककामकोपायाः । हिसायाः पर्यायाः सर्वेऽपि च सरकसभिहिताः ॥६४॥ पद्य समें पैदा होने वाले छात्रों की यह योनि है। मदिरा पाने घार्लोसे तब हिंसा उनकी होता है ।। १. हमेशा सरल या गौले रहनेमें उसमें उत्पन्न होनेवाले सम्मकछन जीव : मदिराकी उत्पत्ति अनेक तरहके फलफूल नौज आदिको बहुत समय तक सड़ानेमालानेसे होती है, जिसमें असंख्याते जोष उत्पन्न होते हैं द हमेशा उत्पन्न होते रहते । अतः उन्हें 'रगुज्ज' याने रससे उत्पन्न होनेवाले कहा जाता है । २. खान या उत्पत्ति स्थान । ३. मदिराके निकट सम्बन्धी याने उसीके समान स्वभाववाले रिश्तेदार इत्यर्थः । . . NAV A RTRAITRA } |
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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