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________________ पुरुषार्थाच ४. वसुनन्दी आचार्य - सात व्यसनोंका त्याग करना ७ तथा पांच उदम्बर फलोंका त्याग करना १ कुल ८ मूलगुण मानते हैं । १९८ ५. पं० आशावरजी- मद्यमांस मधुका त्याग ३, पांच उदम्बर फलोंका त्याग १, रात्रि भोजन त्याग १, देवदर्शन करना १. जीवरक्षा करना १, जल छानकर पोना १, कुल ८ आठ मूल गुण होते हैं। यह बताते हैं । नोट --- ड-अष्ट मूलगुणों के सम्बन्ध में मतभेद होने पर भी लक्ष्य सबका एक है और वह हिंसापाप से बचना है। सबसे अधिक पाप रसना इन्द्रिय और स्पर्शन इन्द्रियोंके द्वारा होता है । इन दोनों पर नियंत्रण होना कठिन प्रतोत होता है और ये दो इन्द्रियाँ हो प्रायः सभी जीवोंके पाई जाती हैं । तदनुसार ही आचार्योंने पेश्तर रसनेन्द्रियके आधारसे हिसापापको छुड़ाया है क्योंकि मद्य आदिक सब रसनेन्द्रियके हो विषय हैं, जिनमें असंख्याते जीव रहा करते हैं और उनके सेवनसे उनका विधात होना अवश्यंभावी है । फलतः यथाशक्ति उनका त्याग कर देना हो श्रेयस्कर है। अतएव मूलमें उन्हीं को लेकर अष्टमूलगुण नाम रखा है अस्तु । अष्टमूलगुणों का पालन दो तरह से होता है ( १ ) अतिचार सहित ( २ ) अतिचार रहित, परन्तु वह योग्यता या पदके अनुसार होता है जो आगे बताया जायगा । दधर्मको पालनेवाले सब तरहसे विचार करते हैं । समुदायरूपसे आठों atri सेवन हिंसा होती है यह तो बतला दिया गया। अब पृथक् २ का दोष बतलाया जाता है । खानपानको शुद्धि करना पहिला कर्तव्य है ।। ६१ ।। मद्य (मदिरा) के सेवनसे हृदयभाव दोनों हिंसाएं होती हैं । मयं मोहयति मनः मोहितचित्तस्तु विस्मरति धर्मम् । freerea जीवो हिंसामविशंकमा चरति ॥ ६२ ॥ पच पान करने से जीबोका भनें मूर्छि होला । सूति न होनेके कारण वह सो धम भूल जाता || होनेके कारण निर्मय वह हो जाता है । का भेद न करके निर्भय हिंसा करता है । ६२ ।। अन्वय अर्थ - आचार्य कहते हैं कि [ मयं मनः मोहयति ] मदिराके पीनेसे इन्द्रियाधीन मन या उपयोग ( ज्ञान ) वेहोश या विवेकरहित पागल जैसा मूच्छित ( अचेत ) हो जाता है । [तु १. अचेस या मूच्छित - विवेक रहित । २. न्याय मा दया ३. निर्भय - निरंकुश | ४. उपयोग या चेतना ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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