SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्मप्राप्तिकी भूमिका भावार्थ- अहिंसा धर्म ही ( अन्तरंग बहिरंग हिंसाका त्याग ही ) जैन धर्म में सबसे बड़ा धर्म माना गया है, जिसको वीतराग धर्म या निश्चय धर्म भी कहा जाता है। परन्तु उसको प्रात करने के लिये पहिले भूमिका या नीव बनाई जाती है वह भूमिका पहिले ( व्यवहारसे ) दया मन्दकषायके रूप में बनाई जाती है। अर्थात् चरणानुयोगको पद्धतिके आलम्बनसे शुरू की जाती है, जिसे व्यवहारशुद्धि कहते हैं। जैसे कड़ो जमान जब कुछ नरम या गोली होती है तब उसको साफ किया जाता है याने शुद्ध बनाया जाता है। इसी तरह तीव्र कषायके कुछ मन्द होने पर ही दयालुता या जीवरक्षारूप धम उत्पन्न होता है। अत: उसके लिये प्रारंभ में, जिनके बिना भी जीवन स्थिर रह सकता है और हिसापाप बच सकता है, ऐसी अनावश्यक चीजोंका त्याग करना बताया गया है अर्थात् 'एक पन्थ दो काज' होते हैं। अर्थात् धर्म सघता पलता ) है और प्राणरक्षा भी होता है इत्यादि लाभ है इत्यादि । ऐसो स्थिति में लोकापवादसे बचने के लिये और धर्मको प्राप्ति के लिये उक्त अभक्ष्य आठ चीजों का स्वागना अनिवार्य है। अष्टमूलगुणधारी ( पालक ) जोव ही पादाका अधिकारी हो- है दुमा हों यह तमाल विशेषता होती है। सामान्य न्यायसे देखा जाय तो ये आठ मूलगुण हैं, जो प्रत्येक जैन मृहस्थको भी धारण करने योग्य हैं व धारण करना चाहिये । सभी इनके साथ मूल (प्रारंभ ) विशेषण लगा हुआ है। अगर यथार्थ पूछा जाय तो जिसके मन में या भावों में 'दया या करुणा' का अभाव हो वह जैन नहीं है वह कर परिणामी हिंसक अजैन जैसा है अस्तु । यह ध्यान में रखते हुए 'सदाचार' से रहना जरूरी है चाहे व्रती हो, या अवती हो परन्तु जैन हो । वयवहारधर्मको यह नीव है और अनादि कालसे संयोगी या अशुद्ध पर्याय में व्यवहाररूप वृत्ति जीवकी होती आ रही है जबतक शुद्ध दृष्टि न हुई हो। शुद्धदृष्टि ( निश्चयश्रद्धा ) या आंशिक शुद्धपर्यायके समय 'निश्चय मोक्षमार्ग ही पहिले हुआ करता है किन्तु जब उसमें ( शुद्धोपयोग या वीतरागतामें ) वह स्थिर नहीं रह पाता अर्थात् उससे विचलित जीव होता है तब वहारधर्म ( शुभोपययोग व शुभक्रियाकांड ) में उपयोग ( मन ) को लगाता है, इतना ही नहीं वह उपयोगको एवं योग । प्रवृत्ति ) को अशभसे प्रयत्न करके बिचाता है यह उस व्यवहार मोक्षमार्गा सम्यग्दृष्टिको विशेषता है। अचि करता रहता है। आठ मूलगुणोंके भेद १. जिनसेनाचार्य--पांच अणुव्रतोंको पालना, मधु, मांस और चूतका त्याग करना ये आठ मलगुण मानते हैं । ये सिर्फ मधक स्थानमें जुआका त्याग करना बताते हैं यह थोड़ा भेद है। २. समन्तभद्राचार्य-पांच अणुव्रतोंका पालन करना और मद्य मांस मधुका त्याग करना आठ मूलगुण कहते हैं। ३. अमृतचन्द्राचार्यका तो उपर्युक्त मत हैं हो जो सोमदेव आघायंस मिलता है। सोमदेव आचार्य भी यही मानते हैं।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy