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________________ : 离心房 पुरुषार्थसिद्धये [ पापपदेशानं कदाचिदपि नै करणीयम् ] पाप कार्यका अर्थात् पापमय आजीविका करनेका, उपदेश (शिक्षा) कभी नहीं देना चाहिये वह वर्जनीय है क्योंकि उससे अनर्थदंड होता है अर्थात् व्यर्थ हो पापका बंध होता है। अणुव्रतोका वह कर्तव्य नहीं है, कारण कि उससे अहिंसाव्रत नहीं पल सकता, यह हानि है ।। १४२ ।। भावार्थ - मुख्य लक्ष्य ( अणुव्रतोंकी रक्षा ) की ओर सदैव दृष्टि रखना विवेकी पुरुषोंका कर्त्तव्य है । तदनुसार अहिंसा व्रतको रक्षा के लिये हर संभव उपाय करना चाहिये ( अनिवार्य है ) | परीक्षा मौके पर ही होती है, अतएव व्रतीको स्वयं अपनी आजीविका उक्त छह कार्यों ( सावनों ) मेंसे अपने योग्य कार्यों द्वारा करना चाहिये । किन्तु लोभ लालच में आकर हिसावर्द्धक आजीविका कभी नहीं करना चाहिये और दूसरे गृहस्थोंके लिये भी हिसापापमय आजीविकाका उपदेश नहीं देना चाहिये, तभी उसका अणुव्रत रक्षित रह सकता है अन्यथा नहीं, यह तात्पर्य है या सारांश है । व्रती विवेकी पुरुष अन्याय व पापसे सदैव डरते रहते हैं, यह उनकी विशेषता है या साधारण जनसे भिन्नता ( व्यावृत्ति ) है । लोषणा में ( लोक स्वाति में ) पड़कर कभी अनर्थका कार्य नहीं करना चाहिये ! रण करना बड़ा काम है-वह ही पापका बाप ( जड़ ) बतलाया गया है, उससे सभी पाप जोव करने लगता है । वह १० वे गुणस्थान तक साथमें जाता है और समस्त पाप प्रकृतियोंका बंधन करता है तथापि धर्मवीर विवेक के लिये कोई असाध्य नहीं है, वह सबकुछ साध्य कर सकता है, अतएव शक्तिको संभालते हुए कायर नहीं बनना चाहिये। आत्मामें अचिन्त्य शक्ति है किम्बहुना | आत्मशक्तिका परिचय विकारके कारण उपस्थित होनेपर भी स्वयं विकृत न होनेपर हो तो मिलता है, यही अटलता कहलाती है अस्तु । ध्यान रहे । नोट -आदिनाथ भगवान्ने कर्मभूमिके प्रारंभ में उपर्युक्त ६ कर्मीका उपदेश आजीविका चलाने को दिया था। इनमें प्राय संकल्पी हिंसा नहीं होती, यह खास विशेषता पाई जाती हैसंकल्पी हिंसा सबसे बड़ा पाप है इत्यादि । arati तीसरा भेद प्रमादचर्या ( आचरण का त्याग बतलाते हैं । भूखननवृक्ष मोटनशाङ्क्लदलनाम्बुसेचनादीनि । निष्कारणं न कुर्याद्दलफल कुसुमोच्चयानपि च || १४३ ॥ पद्य बिना प्रयोजन पृथ्वी जय अरु अग्नि वनस्पति जना ' जिससे frer are न होवे व रक्षा मिस करना है ॥ प्रयोजनभूत न वज सकता है आवक पृथ्वी आदिककी । फिर भी व्यर्थ दोष नहिं लगता विना प्रयोजन त्यागीको ॥१४३॥ १. तीव्रकषाय-- विवेकशून्यता | २. हरा घास ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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