SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 316
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ নদীমা कमती कर देना चाहिये । संसारी जीव, रागद्वेष मोहवश संयोगी पर्याय में न जाने कितने विकला उठाते रहते हैं जिनसे कुछ मतलब { स्वार्थ ) ही नहीं निकलता। इसीसे संसारकी वृद्धि होतो रहती है । होमता नहीं होती यह दुःखकी बात है। यद्यपि व्यवहार दशामें परका आलम्बन लेना अनिवार्य रहता है । पराश्रित्तो व्यवहारः ) तथापि विवेकबुद्धि तो होना ही चाहिये, जिससे संसार घटे । परन्तु अज्ञानी जीव विना गिटके अन्याम पालन करने महोते हैं और उसमें अपनावत ( एकत्व आत्मीयता ) करके कर्तव्य पालन नहीं करते। स्वभावसे एकाकी । एकत्व विभक्त रूप ) आत्मा जवतक परका सम्बन्ध विच्छेद नहीं करता तबतक संसारसे पार नहीं हो सकता तथा विकल्प नहीं छूट सकते इत्यादि । नोट-.-इलोकमें 'चौर्यायाः पद है, उससे किसोको मारने या बरवाद होने, बंधन में डालने, अंगोपांग छेदने, सर्वस्व हरण करने, कष्ट देने आदिका खोटा चिन्तवन करना भी मना है ऐसा समझना चाहिये, अहिंसाका पालन मनवचनकायसे होना चाहिये, अर्थात् मममें बुरा चिन्तवन नहीं करमा, कायसे वैसा खोटा कार्य नहीं करना, वचनसे वैसे बोल न बोलना, तभी वह व्रत रक्षित रह सकता है ।। १४१ ।। आचार्य अनर्थदंडके दूसरे भेद पापोपदेशका त्याग करना बतलाते हैं। विद्यावाणिज्यमेषीकृषिसेवाशिल्पंजीविनां पुंसाम् । पापोपदेशदान कदाचिदपि नैव करणीयम् ॥१४२।। पद्य विद्यादिक कह कार्योंसे सो गुजर बसर अपनी करसे । उन्हें कभी उपदेश पापका देना नहि शिक्षा देते ।। हिंसा कार्य बताकर उनको जो वृद्धि करना चहते । नहीं हितैषी के है उनके निजपरको बधन करते ।।१४२।। अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [विधामाणिज्यमषीकृषिसेवाशिष्पजीदिनां पुंसाम् ] कला, व्यापार, मुनीमी, खेती, नौकरी, मकान आदि बनाना इन छह आजीविकाके साधनों द्वारा आजीविका करने वाले गृहस्थों अर्थात् कर्मभूमिके मनुष्योंको ( सात्त्विक जोवन बितानेबालोंको ) कला पाना बजाना आदि । २. व्यापार खरीद बेचना । ३. मुनीमी आदि लिखापढ़ी। ४. खेती किसानी। ५. नौकरी-सिपाहीगिरि आदि । ६, कारीगरी मकानादि बनामा । ३९
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy