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________________ ORE M SAFET पुरुषार्थसिद्धघुपाय त और विरत इन दो शब्दोंमें भी अन्तर है। व्रतका अर्थ त्याग होता है और विरतका अर्थ उदासीन या विरक होता है। तदनुसार १२ बारह विरतका अर्थ उदासीनता होता है अर्थात् बारह प्रकार की उदासीनताका होना। इसीसे पंचम गुणस्थानवालोंका नाम 'उदासीन श्रावक' पड़ता है, जिसका मतलब पूर्णत्याग का न होना अनि देशमा झोल या अतिचारका लगना है। ऐसी स्थिति में व्रत या विस्तधारीके अतिचार लगते रहते हैं और प्रतिमाधारीके अतिचार छूट जाते हैं यह अन्तर : भेद ) है। अथवा अभ्यासदशा या भूमिका तयार होना व्रत कहलाता है और उसमें त्रुटि न रहना पूर्ण तयार हो जाना प्रतिमा कहलाती है। इसका भावार्थ यह है कि निरतिचार व नियमित त पालनेका नाम प्रतिमा है और सातिधार तथा अनियमित व्रत पालनेका नाम विरत है इत्यादि सर्वत्र ऐसा ही समझना चाहिये। निष्कर्ष शिक्षायत में अतिचार लगता है और प्रतिमा में अतिचार नहीं लगता है। न नियमभंग होता है दृढ़ता रहती है शिथिलाचार नहीं रहता किम्बहुना । प्रतिमा प्रकरण (प्रसंगवश ) बारह विरतोंसे ११ प्रतिमाएँ बनती हैं। ___ बाह्यत्यागसे बाहामुत्रा ब वेष बनता है प्रतिमाएँ सब बाह्य त्याग तपस्यापर निर्भर रहती हैं क्योंकि बाह्यत्यागसे वैसी मुद्रा व वेष बाहिर दिख पड़ता है ज) चरणानुयोग ( लोकाचार की पद्धतिसे जीवन में विशेषता समझो जाती है और आदरणीय होती है, उसके ११ दरजे ( क्लासें ) माने गये हैं। परन्तु सभी में तरतमरूपसे बाह्यत्यागको मुख्यता है जो संक्षेपमें निम्न प्रकार है। सभोका उद्देश्य इन्द्रियसंयम व प्राणिसंयमका पालना है अर्थात् इन्द्रियों को स्वच्छन्द प्रवृत्तिको कम करना और जीवरक्षा करना है । तथा अन्तरंग ( भोतर )में कषायोंका भी कम करना उद्देश्य है अस्तु । १. पहिली प्रतिमा --दर्शन प्रतिमा है, इसमें सम्यग्दर्शनको शुद्ध किया जाता है और अशुद्धताका त्याग किया जाता है अर्थात् तीन मूढ़ताओंका त्याग किया जाता है ( उनकी भक्तिश्रद्धा पूजा आदि करना छोड़ दिया जाता है !, आठ मदोंका त्याग किया जाता है, ६ छह अनायतनांका त्याग किया जाता है, शंकादिक आठ दोषोंका त्याग किया जाता है कुल २५ दोष दूर किये आते हैं जो जीवन में अशुद्धता लानेवाले हैं। सम्यक् श्रद्धा न होनेसे ही जीव (आत्मा)का कल्याण व उद्धार हो सकता है बह नोवरूप है अस्तु । वह पहिला उपाय है जो होना ही चाहिये, उसोका नाम अन्ल रंगमें मूलगुण है और बाहिरमें आठ ( मद्यादि ) अभक्ष्य चीजोंका त्याग करने रूप है, जो आगे व्रतधारण करनेको शुद्ध भूमिकारूप है। इससे भी इन्द्रियसंयम ( अहिंसा ) और प्राणिसंयम ( अहिंसा ) पलता है ऐसा समझना चाहिये । इस प्रतिमाका धारी निरतिचार आठ मुलगुण या मिरतिचार सम्यग्दर्शन आठ अंग सहित, पालता है तभी तो उसका नाम 'प्रतिमा' पड़ता है। उसकी बाहिर खान-पानमें शुद्धि होने लगती है, शिथिलाचार या स्वच्छंदता मिट १, अन्तर बाहिर एकसा अहाँ होय परिणाम | भोग अरुचि व्रत आदरे प्रतिमा ताको नाम ॥ यह लक्षण है। banymamiipinitiheirwawmnimonine i trimmindianpragneKHOJ
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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