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________________ सहलेखनाप्रकरण ३५३ जाय, यदि वह इच्छा प्रकट करे तो वह देवे और यदि वह उसमें आसक हो तो धर्मोपदेश देकर उसका राग छुड़ादे, बार-बार उसे समझाने इत्यादि कर्तब्य है । अस्तु ॥१७७ ।। आचार्य 'आत्मघात'का स्वरूप बताते हैं । यो हि कपायाविष्टः कुंभकजलधूमकेतुविषशस्त्रः । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवंधः ॥१७८ ।। पद्य जो कवायवश होकरके निजप्राण व्यर्थ खो देता है। श्वासरोध जल अग्निशस्त्रस, आरमधाति वह होता है। आत्मघातमें महापाप है, नहीं विरागी करता है। वह जो कुछ करना है तजमा, धर्मरांच रन मरता है ।। १७८ ॥ अन्वय अर्थ----आचार्य कहते हैं कि [ हि सः कपायादिष्टः ] निश्चयसे जो जो तीनकषाय सहित होकर [ कुंभकजस धूमकेतुविषारीः प्राणान् व्यपरोपति ] श्वासनिरोध ( प्राणायाम), जलप्रवेश, अग्निप्रवेश, विषमक्षण, अस्त्रसंचालन आदि क्रियाओंके द्वारा अपने प्राणोंका उत्सर्ग ( त्याग ) करता है [ तस्थ सत्यं आत्मवधः स्यात् ] उसके बराबर । निःसन्देह ) आत्मघात होता है अर्थात् उसमें विवाद नहीं हो सकता ।।१७८॥ भावार्थ---सोनकषाके वेगमें जीव विवेक रहित हो जाता है उसको योग्य अयोग्यका विचार नहीं रहता, अतएव वह मनचाहा कार्य कर बैठता है। चाहे उससे उसको बदनामी हो या कोई हानि हो, उसको यह नहीं देखता! जिनको किसौपर अत्यधिक क्रोध या रोष होता है वे क्रोध या मानके वश में प्राण तक खो देते हैं। फांसी लगाकर, रेलसे कटकर, आगी लगाकर, कुआमें कूदकर, धुटको मसक कर इत्यादि साधनों द्वारा मर जाते हैं। इसी तरह धर्म के लोभ में पागल कर अर्थात स्वार्थी अझानियों के बहकारमें आकर उनका झठा उपदेश मान लेते हैं और उसका आचरण कर बैठते हैं कि 'जो अमुक कार्य करेगा उसको धर्मको प्राप्ति होगी और धर्मसे उसको बैकुंठ या मोक्ष मिलेगा तथा जो यहाँ सब कुछ दे देगा उसे वहाँ परलोकमें सब कुछ तैयार मिलेगा।' इत्यादि अंधश्रद्धा में पड़कर वे 'आत्मघात' कर डालते हैं, जिससे परिणाम संक्लेशमय होनेसे वैकुंठ नहीं मिलकर मरकादि मिलता है। फलतः वैसी मूर्खता कदापि नहीं करना चाहिये । वह धोखा है किम्बहुना। कभी-कभी असह्य दुःख होनेसे भी--जैसे इष्टका वियोग हो जाने पर या अनिष्टका संयोग हो जाने पर भी तीन रागद्वेषवश आत्मधात जोब कर लेते हैं वेइज्जतो (अपमान ) होने पर भी मर जाते हैं, परन्तु है वह सब कषायको तीव्रता आदि-आदि जो बुरी है अस्तु ॥ १८ ॥ १. आत्मघातका दूसरा नाम 'हमछामरण' है अर्थात् तीन कषायवश प्राण त्यागना इत्यादि । S
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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