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________________ Randobaloetittwindimarware.... . पुरुषार्थसिद्धयुपाय पुरजा, वट्टी-खाता, नोट आदि बचाने का ही प्रयत्न करता है जिससे अजारमें उसकी शाख न मिटे, बनी रहे इत्यादि युक्ति काममें लाता है। उसो सरह प्रती साधक जब शरीर बचता दिखाई नहीं देता तन्त्र 'धर्मरत्न { धन ) को वह बचाता है शरीरमें कषाय या राग न कर, उससे ममत्व छोड़ता है, जिससे वह धर्म जीवका दुर्गतियों से बचाता है.शाख कायम रखता है इत्यादि समझना । सन्यास-समाधिमरण-सल्लेखना से सब एकार्थवाची शब्द है किसो भी नामसे कहा जाय अर्थ एक है । अस्तु । नोट--आयुक्षयका पक्का निश्चय न होनेपर यमसल्लेखना करनेको मनाही है, नहीं करना चाहिये। उक्तं । विशेषार्थ ) भावधिसुद्धिणिमितं याहिरमंगभ्य कोरए चाओ। वाहिरचायो विहलो, अश्मंशमंगजुत्तस्स ।। ३ ।। भावपाहु अर्थ-मुमश्च जीव धनधान्यादि बाह्य परिग्रहका त्याग, परिणामों को विशुद्ध ( निर्मल । करने के लिये निमित्त समझकर करते हैं किन्तु उपादान समझकर नहीं करते । अतएव जिन जीवों का अन्तरंग परिग्रह कषाय व मिथ्यात्व ) नहीं छूटता अपितु मौजूद रहता है और वे कषायको मन्दता या तीनता (भयादि) से बहिरंग परिग्रहका कदाचित त्याग करते हैं या कर देते हैं। उनका बहिरंग परिग्रहका त्याग करना निष्फल जाता है अर्थात् उससे साध्य { मोक्ष ) की सिद्धि नहीं होती, संसार हो में निवास रहता है यह तात्पर्य है। ऐसी स्थिति में सलाले खाना धारण करनेका मतलब कषायभावोंको कम करनेका है और उसके लिये निमित्तरूप बाह्यपरिग्रह या औषधि अन्नपानादिका त्याग किया जाता है तथा वह उचित है। किम्बहना 1 यहाँ पर तात्विक कथनमें बाय स्यागका महत्त्व नहीं गिराया जा रहा है किन्तु विधेयता ( निमित्तता या आवश्यकता } कायम रखते हुए उनकी कीमत बताई जा रही है। ऐसी स्थितिमें जबतक हीन दशा रहती है सबतक उसका अपनाना भी कचित् लाभकर होता है परन्तु सर्वथा नहीं होता ऐसा समझना चाहिये। सल्लेखनाके समयको विधि नग्नवेष ( दिगम्बरपना ) होना बहुधा आवश्यक है । साधक पुरुषके लिये तो यह कठिन नहीं है--संभव है किन्तु आयिका के लिये महाकठिन है लथापि उसको एकान्त स्थानमें वैसा करने की आज्ञा है, वह उपचार महावत धारण कर सकती है। यों तो उसके लिये साधारण अवस्था मेंनग्नता धारण करना, खड़े-खड़े आहार लेना, पाणिपात्र भोजन करना. मना है ये तीन कार्य उत्कृष्ट श्रावक्रवती नहीं कर सकता यह नियम है। संथराको विधि भिन्न प्रकारको है। अनेक प्रकारके योग्य आहार दिखाकर उसका दिल ( भावः) टटोला
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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