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पुरुषार्थसिद्धयुपाय
या अरुचि ही होती हैं अतः वह होने का विषाद व मेटने का उपाय हमेशा करता रहता है अस्तुaraहारको छोड़कर frrचयका आलम्बन करनेसे होनेवाला लाभ बतलाया जाता है |--
आत्मस्वभाव
परभावमिश्रमापूर्णमान्तविमुकम् । थिलीन संकटपनि दपजालं, प्रकाशयन् शुनयोऽभ्युदेति ||१०||
अर्थ - निश्चयनयसे आत्माका स्वरूप, परसे सर्वथा भिन्न अर्थात् परपदार्थ के साथ तादात्म्य सम्बन्ध रहित है, गुणोंकर भरा हुआ है अर्थात् अपने सम्पूर्ण गुणों सहित है ( उसमें औगुण या दोष नहीं है वह गुणोंका पिंड है ) आदि व अन्तसे रहित अनादिनिधन ( नित्य ) है तथा एकअकेला है ( अद्वितीय - एकस्वरूप है ) संकल्प ( रागादिभाव ) और विकल्प ( ज्ञानमें उठनेवाली तरह २ की लहरों) से रहित है । द्रव्यदृष्टिसे अशुद्धता ( संयोगीपर्याय ) रहित है, उसमें परसे भिन्नतारूप शुद्धता सदैव रहती है इत्यादि ऐसा आत्मा के शुद्ध स्वाधीन स्वरूपको दरशानेवाला शुद्धनय ही है, व उस निश्चयमय ( शुद्ध नय ) का आलम्बन करने पर ही जीवका कल्याण होना संभव है (लाभ संभव है) व्यवहारमयका आलम्बन करनेसे कल्याण अर्थात् मुक्ति नहीं हो सकती है सम्यग्ज्ञानका होना सच्चा आलम्बन हैं, शेष सब भ्रम है । इसोका नाम 'स्वपरका भेदविज्ञान' है अतः उसको येनकेन प्रकारेण प्राप्त अवश्य करना चाहिये किम्बहुना ||११||
आगे आचार्य व्यवहारनयको अपेक्षासे जीवका स्वरूप बताते हैं---
नैमित्तिकताका प्रदर्शन द्वारा
atani परिणामं निमित्तमात्रं प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमैन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥ १२ ॥
पद्य
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date होने कारण स्वयं जीवके भावे हि हैं वे भिज्ञ भाव कहे हैं प्रभुने यतः जीव में होते हैं ॥ हैं विभिन्न कारण वे उसमें कर्मबंध जो होता है ।
उपादान कारण है पुद्गल, कर्मरूप परिणमता है ॥१२
१. अशुद्ध निश्चयनमसे जीव ( अशुद्ध ) की कार्यपर्यायरूप, उसमें उत्पन्न हुए ।
२. अपने आप ही उपादान शक्ति ।
३. परिणम जाते हैं हो जाते हैं, प्रकट हो जाते हैं ।
४. कर्मपर्यायरूपसे परिणम जाते हैं ।
५. संयोगी पर्यायरूप अशुत्र अवस्था ।
६. विकारपरिणाम अशुद्धोपयोग |