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________________ जीप दृष्यका लक्षण 5 . अन्वय अर्थ--[अ] इस संसारमें अथवा जीवकी अशुद्ध ( संयोगी ) पर्याय में [ जीवकृत परिणाम ] जो रागादिरूप विकारीपरिणाम प्रकट होते हैं उनको निमित्तमा प्रपद्य ] सिर्फ निमित्तरूप बना करके [ अन्य पुद्गलाः ] दूसरे जड़ पुद्गलस्कंध [ स्वयमेव क्रममावेन परिशमन्ते ] स्वयं अर्थात् अपने आप अपनी योग्यतासे हो ( स्वोपादानतासे ) कर्मपर्यायरूप अर्थात् ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप ( मूलभेद दे उत्तरभेदरूप ) परिणम जाते हैं । अर्थात् कर्म यह पुद्गल द्रव्यकी कार्यपर्याय है जो पुद्गल द्रव्यमेंसे स्वयं ही प्रकट होती है सिर्फ उसके लिये सहायता देनेवाले जीवद्रव्यके रागादिरूप विकारीभाव होना चाहिये ओ कि अशुद्ध निश्चयनयसे संसारी या अशुद्ध जोचके कार्यपर्याय रूप है, परन्तु वे खाली निमित्त कारण है ( दर्शकरूप ) और कुछ नहीं हैं यह तात्पर्य है। यही निमित्तनैमित्तिकरूपसे कर्तृत्त्व भोक्तृत्वका होना व्यवहारनयकी अपेक्षा जीवका लक्षण या स्वरूप है ऐसा समझना चाहिये ॥१२॥ . भावार्थ---जीव और पुद्गल, इन दो द्रव्योंका संयोग सम्बन्ध अनादि कालसे स्वयं-भिन्न पर द्रव्यकी सहायता या निमित्तसा बिना होता चला आया है। उससे दोनों अनादिकालसे विकृत हो रहे हैं, जिसका नतीजा यह संसार दशा है। प्रतिसमय आस्रवबंध-उदय-निर्जरा आदि कार्य होता रहता है । फलस्वरूप जन्ममरण रोग आधि व्याधि भूख-प्यास आदिके असह्य दुःख उठाना ( भोगना पड़ रहे हैं। सिवाय संक्लेशता व आकुलताके एक क्षणको भी सुखशान्ति नहीं मिलती, अतएव उस सबका छूटना अत्यावश्यक है--उपादेय है यह निश्चयकी बात है अस्तु । इस विषयमें विशेष प्रकाश डालनेकी आवश्यकता मालूम पड़ती है। ___नोट----पुद्गल द्रव्यका परिणमन अनेक प्रकारका होता है ज्ञानावरणादि कमरूप व शरीरादिनोकर्मरूप । खाये हुए अन्न आदिका जैसे खलरसरुधिरादिरूप परिणमन होता है जो उसका स्वभाव है। विशेषार्थ-खुलासा द्रव्याधिकनय या शुद्ध निश्चयनयको अपेक्षासे जीव आदि छहों द्रव्ये अबद्ध हैं स्वतंत्र व शुद्ध हैं..-परसे भिन्न स्वत: परिणमनशील हैं, एक दुसरेका कुछ भी विचार या सुधार नहीं कर सकतीं, अपना २ कार्य स्वयं करती रहती हैं तथा अपना स्वभाव कभी नहीं छोड़ती यह अकाट्य नियम है इत्यादि, यह द्रव्याथिकनय बनाम निश्चयनयका कथन या निरूपण है। किन्तु संयोगरूप पर्यायाथिकनय या व्यवहारमयकी अपेक्षासे जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्ये अयुतसिद्ध संयोगसम्बन्धसे बद्ध हो रही हैं ---परस्पर संधिरूपसे मेल किये हुए हैं। इतना ही नहीं अपितु एक दूसरेमें निमित्तता भी करती रहती हैं। अर्थात संयोगीपर्यायमें जो जीवद्रव्य के रागादिरूप विकारीभाव (परिणाम-पर्याय ; होते हैं उनकी व साथी योगोंकी सहायता या निमित्ततासे नवीन पुद्गल द्रव्योंका आस्रव ( आगमन ) व बंध व कर्मभोकर्म रूप परिणमन ( कार्यपर्याय ) तथा स्थिति अनुभागका पड़ना, उदयमें आकर फल देना आदि कार्य हुआ करते हैं। उदय होनेके समय पुनः परिणाम बिगड़ते हैं अर्थात् उनमें रागादि विकार होता है तब उनके निमित्तसे पुन: आसव-बंध-उदय आदि होता है। इस तरह भावसंच { विकार) से ब्यबंध और
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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