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________________ २९५ ५06 ........ रात्रिभोजमस्यागाणुवत और असंभव है-वह सर्वत्र सुलभ नहीं है, न सूर्य प्रकाशको बराबरी कर सकता है कृत्रिम उपाय सब कष्ट साध्य होते हैं. दुर्लभ होते हैं, सुलभ नहीं होतं । इत्यादि नैतिक व धार्मिक दोनों दुष्टियोंसे रात्रि भोजन वर्जनीय है, यतः वह प्रमाददोषमें शामिल है ।।१२।। रात्रि भोजनमें हिंसा किस तरह होती है वह आचार्य बताते हैं । स्पष्टीकरण करते हैं रागाग्रदयपरत्वादनिवृत्ति तिबचते हिंसां । राविन्दिविभाहरतः कथं हिं हिंसा न संभवति ॥१३॥ .. .... . . पध रामादिकके सीमा उदयसे त्याग मात्र नहिं होता है। चिना स्थागके हिसा होती, नियम अटल नहि टलता है ॥ जो इप्तमे बहुरागी होते, जब सब भोजन करते हैं। विमा विवेक जीव इस जपमें हरदम हिंसा करते हैं ।।१३०॥ अन्बय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि रामायदयपरत्वादनिधूति: हिंसां नासिवर्तते ] समादिक की प्रचुरतासे जो ल्यागभाव ( निवृत्तिः) नहीं होता है अर्थात् संयम धारण नहीं किया जाता है, उससे हिसा बराबर होती है, कारण कि रागसे ही तो हिंसा होती है। अतएव । रानिन्दिचमाहरतः हिंसा कथं म संभवति १] बिना नियमके दिन रात जबतक मनचाहा भोजन करनेवाले के हिंसा यथार्थमें क्यों न होगी ? अवश्य होगी। अनिवार्य है ) यह भाव है ।। १३०॥ भावार्थ-रागको प्रचुरतासे भावहिंसा व द्रव्यहिमा दोनों होती हैं, क्योंकि अन्तरंग कारण हिंसा पापका वही है। अनादिसे संसार अवस्था उसीने की है, अतएव विवेकी ज्ञानी पहिले जसीको हटाते हैं, वह बड़ा शत्रु है। सब बातोंका नियम है, परन्तु जो जीव नियम नहीं पालले आहार विहार आदिमें दिन रात्रिका कोई भेद नहीं रखते वे मनुष्य नहीं हैं प्रत्युत्त राक्षस या दानव हैमानव नहीं हैं, मानवका आचार विचार उच्च व आदर्श होना चाहिए। मनुष्य योनि बहुत उच्च योनि है क्योंकि उसीसे मुक्ति होती है, अन्यसे नहीं। तब क्या उसमें विवेक नहीं होना चाहिये ? विना विवेक और विना संयम ( अहिंसा धर्म ) जीवन निरर्थक माना गया है, जैसे कि अजा करी के गलेके स्तन बेकार पाये जाते हैं। फलतः भोजन पान दान हवन पूजन आदि मंगल कार्य व नित्यकार्य दिनमें ही होना चाहिये-- रात्रिमें नहीं होना चाहिये, धर्मशास्त्रको यही सम्मति है। विम्बहुना----हिंसा व पापसे जीबका उद्धार नहीं होता यह नियम है। सदाचारका मूल्य अत्यधिक होता है, उसका आदर जरूर करना चाहिये। मनुष्य और अन्य जीवोंमें संयम ( हिसा धर्म) को हो विशेषता पाई जाती है अर्थात् मनुष्य संयम पालसा है और दूसरे संयम नहीं पाल सकते १. अत्याग बनाम प्रवृत्तिः ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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