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________________ निमारका हैं, जो निमित्त कारण हैं अतएव लक्ष्य ( सामायिक-साध्य )की सिद्धि के लिये उनका मिलाना भी अनिवार्य व हितकर है। अत: उसीका उपदेश इस इलोकमें दिया है। वह कर्मोको निर्जसका मुख्य साधन है किम्बहुना । चरणानुयोगकी यह पद्धति है अथवा भूमिकाशुद्धि है जो वाह्य अनिवार्य कर्तव्य है ॥१५३।। आचार्य प्रोषधोपचासीका गत्रिके समयका कर्तव्य बताते हैं । धर्मध्यानासक्तो बासरमतिबाट विहितसान्ध्यविधिम् । शुचिसंस्तरे त्रियाँमा गमयेत् स्वाध्यायजितनिद्रः ॥१५४॥ पद्य धर्म ग्राम सहित अब पूरा दिनका टाइम हो जाने । और शामको संध्या करके शनि समयम्हागू होवे ।। शुचि विस्तरका लेय सहारा बीच-बोफ्यमै सो आधे । स्वाध्याय करते करते ही निद्रा रास उभय खोवे ||१५॥ · अन्य अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ धर्मध्यानासक्तः विहितम्पान्ध्यविधि बालरमतिबा प्रोषधोपवासी, धर्मध्यान में लीन ( आसक) होकर एवं शामको सामायिक ( संध्या) पूरी करके दिन पूरा कर लेवे सब [ स्याध्यागजितनिद्रः शुचिसंस्तरे मामांगमयेन् ] पवित्र विस्तर । चटाई वगैरह )के ऊपर स्वाध्याय करते हुए व नींद लेते हुए रात्रिको बिताये अर्थात् बीच-बीच में थोड़ा सोते हुए रात्रिका कर्तव्य पूरा करे 11१५४।। भावार्थ----प्रमाद और आलस्यका मूल ! जड़ ) बहुधा भोजनपान है अतएव प्रोषधोपवासके समय अन्नजलादिक्रका त्याग हो जानेसे एक तो स्वभावसे नींद कमती हो जाता है। दूसरे धर्मध्यानमें चित्तको लगामेसे उपयोग बदल जाता है व नींद नहीं आती। फलत: निरालस होकर रात्रिके समय प्रोषधोपचासो सरलतासे बिता देता है। फिर भी संकल्प करके अपना कर्त्तव्य समझ पूरा करना ही चाहिये । अर्थात् ब्रतीको अपना समय व्यर्थ ही निद्रा और गपशप आदि अप्रयोजनभूत कामों में नहीं खा देना चाहिये, समयका सदुपयोग करना अनिवार्य है, क्योंकि सगादिकको घटाने के लिये हो तो व्रत धारण किये जाते हैं। अत: लक्ष्य पूरा करना ही चाहिये तभी विवेक शीलता समझी जायगी किम्बहुना। दिन व रात्रिका समय दोनों ही यथासंभव ध्यान व स्वाध्यायमें बिताना चाहिये इत्यादि । क्योंकि आरम्भ परिग्रह दो प्रोषधोपवासके समय त्याग ही दिया जाता है जिससे बाह्य आकुलता मिट जाती है फिर चिन्ता काहेकी करना ? नहीं करना चाहिये, १. आरुड़ या संलग्न होकर । २. शुख पवित्र विस्तर । ३. रात्रि piri t Torrom sci NAWARUH MAHARASHTRA)
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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