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________________ पुरुषार्थलिपार्य निश्चिन्त या निःशल्य होकर मुख्यतया धर्मसाधन करना ही उचित है अस्तु । प्रशस्तकार्य स्वाध्याय ध्यान सामायिक तत्त्वचर्चा आदि हैं उनमें उपयोग (चित्त )को लगाना बद्धिमानी है। प्रोषधोपवासी रात्रिको तीसरे पहर थोड़ा आराम लंकर पुनः चौथ पहर 'ब्राह्ममुहूर्त में { दो घड़ी रात्रि शेष रहनेपर ) पवित्र विस्तरोंपर ही या पृथक पवित्र ( निर्जीव ) स्थानमें प्रातःकालकी सामायिक { सन्ध्या कार्य ) करता है। उसके पश्चात् नित्यकर्म करता है वही आगे बताया जाता है ।।१५४।। नोट-दिनका समय, पहिले प्रारम्भका आधा दिन और रात्रि तथा दूसरा दिन ब रात्रि यहाँपर ग्राह्य है क्योंकि श्लोकमें 'वासर व त्रियामा' ये सामान्यपद हैं ऐसा समझना चाहिये ।।१५४।। आचार्य प्रोषधोपचास पूरा होनेके दिनका प्रातःकालीन कर्तव्य बताते हैं। प्रातः प्रोत्थाय ततः कृत्वा तात्कालिक क्रियाकल्पम् । निर्वतयेद्यथोक्तं जिनपूजां प्रासुकैव्यैः ॥१५॥ पद्य प्रास समय उठ करके पहिले निस्पकर्म यह करता है। पीछे धर्म कार्य में लगता, श्री जिमपूजन करता है। प्रामुक ब्रम्य लेयकर पर वह पूजा भक्ति खुब करता। लक्ष्य अहिंसाका रखता है, प्रोषध नाम विरत धरता ॥५५५॥ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि प्रोषधोपवासीका कर्तव्य है कि वह प्रातः स्थाय सारकालिक क्रियाकल्पं कृत्वा ] प्रातःकाल उठकर (जागकर ) और प्रातःकालीन सभी क्रियायें ( शौचादि निपटना स्नान करना ) करके [तसः प्रामुकदव्यैः यो जिन पक्षां निर्वतयेत् ] उसके पश्चात् प्रासुक द्रव्योंसे आगमोक्त विधिके अनुसार जिनेन्द्रदेवको पूजा करे। करना चाहिये । तभी उसका फल मिलता है ।। १५५ ।। 'विभिन्न व्यासपाधिशेषात सद्विशेषः' ॥ ३९॥ त० सूत्र अ० । भावार्थ-इस उमास्वामीके सूत्रके अनुसार सभी बातोंको विशेषता ( योग्यता ) मिलने पर फल में विशेषता होती है यह नियम है ! अतएव अद्वातद्वा पूजा करना लाभदायक नहीं होती किन्तु अच्छो विधिपूर्वक शुद्ध प्रासुक द्रध्यसे श्रद्धा सहित पूजा करने पर उसका अनुपम फल मिलता है। अतएव वैसी ही पूरी पूजा करना चाहिये वेमार सी नहीं टालनी चाहिये यह जिनाना है, इस पर ध्यान देना अनिवार्य है। पेश्तर पूजा करना श्रावतका मुख्य कर्तव्य है उसके पश्चात् प्रति. पूजा करना अर्थात् भक्तिपूर्वकद्वारा पेक्ष पड़गाहन करके पात्रदान देना दूजा कर्तव्य है। उसके १. आगमके अनुकूल--जैसी विधि शास्त्रमें बतलाई गई है, तदनुसार करना चाहिए । २. जीवरहित-अचितफलादि, सचिसफलादि नहीं, धर्जनीय है ध्यान रहे...कारण कि उनमें जीवहिंसा होती है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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