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________________ पुरुषार्थसिद्धधुपाय ६-निर्जरातत्त्व, एक देश अर्थात् कुछ थोड़े, पूर्वबद्ध कमों का आत्मासे सम्बन्ध छूटना निर्जरा कहलाता है, वह द्रव्यानर्जरा है तथा विकारी भावोंका थोड़ा हटना या न होना भावन निर्जरा कहलाता है। परन्तु इसके विषयमें विपरीत धारणा या श्रद्धा होना निर्जरा तत्त्वमें विपरीतता है। जैसे कि यह निजरासन जोबकी ही है- ( मेरी है। पूदुगलकी नहीं है जबकि दोनोंकी है इत्यादि भूल है। अर्थात् चाह । अभिलाषा ) आदि विकारीभावोंको कमती न कर उन्हें बढ़ाना, निर्जराके प्रति विपरीत श्रद्धा है क्योंकि उनसे अधिक कर्मबन्ध होता है। --मोक्षतत्त्व, संयोगोपर्वायका, जो कि जीव और पुद्गलका गठबन्धनरूप अनादिसे है, वियोग हो जाना मोक्ष कहलाता है अर्थात परस्परका घनिष्ट सम्बन्ध छुट जाना मोक्ष माना जाता है । इसके विषयमें विपरीत श्रद्धाका होगा कि मोक्षपर्याय अकेले जीव की ( मेरी ) ही है, मोक्षके समय सिर्फ जीव ही संसार-शरीर-भोगोंसे पृथक होता है किन्तु दुसरा कोई ( शरीरादि परद्रव्ये ) नहीं, यह विपरीत धारणा मोक्षके सम्बन्धमें है। क्योंकि जब दो चीजोंका संयोग है तब वियोग होनेपर क्या दोनों एक दूसर.... पुक् न होगी। यह प्रश्न होता है। तब कहना पड़ेगा कि बराबर दोनोंको पृथकता होती है इत्यादि। फलतः मोक्षपर्याय जीव पुद्गल दोनों की है जबतक कि संयोगीपर्याय में दोनों रहते हैं। वैसे तो द्रव्य हमेशा मुक्त । परसे भिन्न-तादात्म्यरहित ) है व रहती है, परन्तु उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है इत्यादि । विकल्प न करना मोक्ष है, परन्तु विकल्पोंको मोक्षका कारण मानना विपरीतता है। आकुलता (दुःख) रूप है। पूर्वोक्त प्रकारको विपरीत धारणा ( श्रद्धा ) संयोगीपर्यायमें होना ही सात तत्वोंमें विपरीत श्रद्धाका ( विचारधाराका ) होना कहलाता है। अतएव उसका मिटाना अनिवार्य है। सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक श्रद्धानके हर बिना जीवका उद्धार संसारसे कदापि नहीं हो सकता यह नियम है। फलतः सम्यग्दर्शन सभ्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्रको प्राप्त करना ही पुरुषार्थकी सफलता कही गई है, शेष सफलताएँ मोक्षोपयोगी नहीं हैं अतः उनका कथन नहीं किया गया सार बात बतलाई गई है किम्बहूना ! सात तत्वोंकी विपरोनताका कथन व स्वरूप स्व० ५० दौलतरामजीने छहढालाकी द्वितीय ढाल में और स्व०५७ सोबरमलजो सा०ले मोक्षमार्गप्रकाशक ग्रन्थके चतुर्थ अधिकारमें विस्तारसे कहा है सो समझ लेना। लिखनेका ढंग भिन्न २ प्रकारका है किन्तु भाव सबका प्रायः एक-सा है अस्तु । विपरीतभाष ( अभिनिवेश) जो जीव पुद्गलकी कर्मरूप पर्यायों ( आठ कर्मो) को तथा उनके उदयरूप निमित्तोंसे होनेवाले कार्यों ( फलों) को अपना मानते व सुखी-दुःखी होते हैं वे महामिथ्यादष्टि हैं जैसे कि नामकर्मके उदयसे होनेवाली गतियों ( नारक तिर्यंच मनुष्य देव पर्यायों) में तथा जालियों (एकेन्द्रियादि ) में, गोत्रकर्म के उदयसे होने वाले कुलों ( नीच ऊंच ) आदिमें अपनायत बुद्धिसे १. अन्यमतावलंबियों (नैयायिकादिकों ) के द्वारा माने गये मोक्षके स्वरूप को मानना भी मोक्षके विषय में विपरीत मान्यता कहलाती है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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