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________________ . .. . .. মহিষ अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ तु अहिंसा अपरस्य परिकामे हिंसाफले ददाति ] और कभी अहिसा, ( द्रव्यप्राणघात न हाना रूप) किसी जीवको फल कालमें ( उदय आनेपर ) हिंसाका फल देती है [ पुनः हिंसा इलरस्य अहिंसाफलं दिशति अन्यत् न ] और कभी हिंसा, किसी जोवको अहिंसाका फल देती है दूसरा नहीं, ऐसा नियम है। सो यह विचित्रता सब परिणामोंके चाल ( गति ] की है अस्तु ।। ५७ !! भावार्थ-क्रिया और भावों में एवं फलमें व्यतिक्रमका होना आश्चर्यजनक है. लोगोको इसमें भ्रम और अचरज उत्पन्न हो सकता है कि क्रिया तो अहिंसा को हो रही है, अर्थात् बाहिर किसा जीवका विघात नहीं हो रहा है और उसको हिंसा करनेका फल ( पाप लगता है। इसी तरह बाहिर क्रिया जीवको मारने जैसो ( चोरा-फाड़ो वगैरह ) हो रही है, और उसको अहिंसाका फल ( पुण्य ) लगता है इत्यादि । इस व्यतिक्रम या आश्चर्यका उत्तर ( समाधान ) एक हो है और वह यह कि फल सदैव परिणामों के अनुसार होता है बाह्य क्रियाके अनुसार नहीं होता, बाह्य किया खाली निमित्तकारणरूप है, अतएव उसमें यह सामर्थ्य ( शक्ति नहीं है कि वह परिणामोंको बदल दे सके । किन्तु परिणाम स्वयं हर तरहके होते हैं और कार्य करते हैं। निमित्त भी किसीके अधीन नहीं हैं वे भा भवितव्य के अनुसार हा मिलते बिछुड़ते हैं। ऐसी स्वतन्त्र स्थितिमे भ्रम और आश्चर्य करना व्यर्थ है अन्यत्र कहा भी है। इस तरह फलका विचित्रताके सम्बन्धमें १६ सोलह उदाहरण दिये गये हैं श्लोक २०५१ से लेकर ५७ तक । २-+-++४+२+२+२)। वे उदाहरण भी हिसान एवं अहिसाके सम्बन्धमें खासकर दिये गये हैं ! इतना स्पष्ट और विस्तारके साथ कथन प्रायः अन्यत्र देखने में नहीं आया है, यह विशेषता इस भ्रन्थकी है। इसी परसे धर्म और अधर्मका निर्धार किया गया है अर्थात् स्वभाव भाव । अविकारीभाव ) ही धर्म है और विभावभाव ( विकारीभाव ) ही अधर्म है, इनसे भिन्न धर्म और अधर्म कुछ नहीं है इत्यादि समझना चाहिये। उपसंहाररूप कथन आचार्य कहते हैं कि अनादिकालसे धर्म और अधर्म के स्वरूपमें भले हए प्राणियोंको नय चक्रका प्रयोग करने में अर्थात् उसको स्वयं समझकर दूसरोंको समझाने में कुशल या परिणय गुरु हो..-सच्चे ( असली ) धर्म और अधर्मका स्वरूप बता सकते हैं एवं वे हो संसारसामरसे पार १. सर्व सदैव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयामरणजीवितदुःखसौरूयम् । अज्ञानभेदिह अत्त परः परस्म कुर्यात्पुमान् भरणजीवित सौख्यम् ।।१८।। ( समयसार कलश ) : अर्थ—यस्तु स्वभाव ऐसा है कि सभी सुख दुःख जीवनमरण आदि निश्चित हैं कृत्रिम या अनिश्चित ( अनियत ) नहीं है तब यह कहना कि जीव कर्मके उदयसे सब कुछ करता है यह मिथ्या है-- अज्ञानता है। कोई किसीका कर्ता व स्वामी नहीं है सब स्वतन्त्र है अतः सा कहना उपचार मात्र है ( अ
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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