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________________ दर्शनशानचारित्रप्रसारमा सस्वमात्मनः । एक एव सदा सेव्यो मोक्षमार्यो मुमक्षुणा १२३९॥ समयसारकलश । अर्थ-स्त्राश्रित स्वभाव दर्शन झान चारित्र ये तीन ही आत्माके स्वभाव ( वैभन्न ) हैं, अन्य परद्रव्य कुछ भी आत्माका नहीं है । अतएव मोक्षमार्ग तीनोंका समुदायरूप एक ही है, दूसरा नही है। अतएव मुमुक्षु उसीका सेवन करे या करना चाहिए ।।२३९|| निःकांक्षित अङ्गके निश्चय और व्यवहार दो रूप (१) जबतक सम्यग्दृष्टि जीब अपने शुद्ध स्वरूपमें लीन रहता है अर्थान में परद्रव्यसे भिन्न हूँ ( एकत्त्व विभक्तरूप) अतः मुझे परद्रध्यकी वांछा ( रागादि ) नहीं करना चाहिए 'यह भगवान्की आज्ञा है उसपर मैं दह हूँ ऐसा विचार कर जबतक वह शुद्धात्म स्वरूपमें-सब विकल्पों व रागादिकोंको छोड़कर अचल या स्थिर अथवा निर्विकल्प होता है कोई रामादि नहीं करता तबतक उसे निश्चय निकांक्षित अङ्ग समझना चाहिये । बीतरामताके समय ) क्योंकि यह स्वाचित है। (२) और जब नि:क्रांक्षित अङ्गको पालनेकी बांछा या अभिलाषा होती है या उसमें भक्ति पूज्यता आदिकी भावना होतो है ( शुभराग होता है ) तथा घरकी उच्च पदोंकी वांछा नहीं होती ! तब उसको व्यवहार नि:कांति अङ्ग कहते हैं ( सविकल्प या सरागताकै समय ) यतः यह पराश्रित निःकांक्षितपना है। अर्थात् पर वस्तुकी आकांक्षा या चाहको छोड़ देना निःकाक्षित मिथ्या धारणा अपने खातिर ( लिए ) सुखादिककी या विषय सुख प्राप्त होनेकी वांछा नहीं करना, निश्चयनिःकांक्षित है तथा दूसरोंको सुखादि होने की वांछा करना उनका भला चाहना, व्यवहार निःकांक्षित है। यह गलत या विरुद्ध धारणा है. क्योंकि जिनाज्ञाके विरुद्ध है ! जिनाज्ञा तो उत्सर्ग रूप यही है कि 'परद्रव्यकी आकांछा { राग या विकार ) नहीं करना' ( अपने लिये या परके लिए) बस वही सच्चा निःकांक्षित अङ्ग है । उक्त आज्ञामें कोई अपवाद ( शतं ) नहीं है ऐसा समझना चाहिये इति । जैन न्याय यह है कि जबतक जीव परद्रव्यको ग्रहण विसर्जन करता है तबतक वह विशुद्ध नहीं है, संसारसे पार नहीं हो सकता न कर्मक्षय कर सकता है, जिससे मोक्ष प्राप्त होता है। ऐसी स्थिति में वह मूच्छीवान ( परिग्रह वाला ) आरम्भवान् और असंजमी रहता है, तभी . वह संसारी होनेसे मोक्ष नहीं जा सकता यह खुलासा है। इसके सिवाय जब आत्मा अकेला है तब परपरिग्रहादिका संग्रह करना मूर्खता है, उसकी चाह करना प्रतिज्ञाभने दोष है इत्यादि । अतएव आत्मार्थी मुमक्षको परकी आकांक्षा करना निषिद्ध है किम्बहना। निश्चयनयसे किसी किस्मकी आकांक्षा नहीं करना, रागद्वेषरहित निर्विकल्प रहना निःकांक्षित अङ्ग है । और व्यवहारनयसे सांसारिक सुखोंकी (दृश्यमानबाह्य ) चक्रवतिन्ध आदि पदोंकी, धनादि वैभवोंको, परसमय (शास्त्र वेदादि ) और परधर्म ( वैदिकादि ) की वांछा नहीं करना सब निकोक्षित अङ्ग है, ऐसा समझना
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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