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________________ स मानुपxedasti SA पुरुषार्थसिद्धधुपाय जाप्ति धर्म अरु शास्त्रादिक जे, एक पक्ष के पोषक है। भाकांक्षा उनकी महिं करना, तब निकाक्षिस पासक हैं ॥२४॥ अन्वयअर्थ---आचार्य कहते हैं कि [ इह जन्मनि विभवादीनि ] इस जन्म या इस भवमें बाह्य धनधान्यादिक परिग्रहको तथा [ अमुत्र प्रक्रिस्वकेशवादीन् ] परभवमें (परजन्ममें ) चक्रवर्तीनारायण आदि महान् पदवियोंकी [ 4jऔर [एकान्तवाददूषित रसमयानपि ] एकान्त पक्ष या एक धर्मको पुष्टि करनेवाले ( बस्तु अनेक धर्मात्मक नहीं है एक धर्मवाली है ऐसा समर्थन करनेवाले ) अन्य धर्म ( वैदिकादि ) तथा अन्य मास्त्रों ( वेदादि ) की [ नाकक्षित् ] आकांक्षा या प्राप्तिको इच्छा नहीं करना बही निःकांक्षित अङ्ग है । ऐसो दृढ़ निरपेक्ष श्रद्धानालेसे ही-नि:कांक्षित अङ्ग पल सकता है। अर्थात् परद्रव्य हेय ( वर्जनीय ) है ऐसी जिनवाणीकी आज्ञा है, उसको मानने वाला ही निःकांक्षित अङ्गका धारी हो सकता है । और उस आशाके विरुद्ध परद्रव्यको आकांक्षा करनेवाला एवं उसका संग्रह करनेवाला कैसे निःकांक्षित अङ्गको पाल सकता है ? नहीं पाल सकता । क्योंकि परद्रव्य आत्माकी है ही नहीं, आत्मा उससे भिन्न है ( अतादात्म्यरूप है) इत्यादि ॥२४॥ भावार्थ-जीव ( आत्मा) परद्रव्यसे भिन्न एकत्त्व विभक्तरूप शुद्ध अद्वितीय है इसलिये उसको सदैव अपने स्वरूपमें ही स्थिर रहना चाहिए तथा परकी आकांक्षा नहीं करना चाहिये अन्यथा वह अपराध करना कहलायागा, और उसकी बराबर सजा मिलेगी, तब संसारसे वह पार न होगा ( संसार नहीं छूटेगा), जिनेन्द्रदेवका सत्य उपदेश तो यह है। इसके विरुद्ध जो चलते हैं वे जिनाज्ञाको न माननेके कारण मिथ्यादृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि नहीं है, क्योंकि जिनाज्ञा ( उपदेश ) को माननेवाला ही सम्यग्दुष्टि हो सकता है। तब आत्मकल्याणके इच्छुक जीवोंको चाहिए कि वे पहिले जिनवाणीको ही श्रद्धा करके सम्यग्दष्टि बमें अर्थात् सम्यग्दर्शनको प्राप्त करें। यहीं एक सपना और पहिला ( मुख्य ) उपाय है। इसके सिवाय परद्रव्यको न आकांक्षा करें न उसका बल भरोसा रखें। न उसका संग्रह करें, सिर्फ अपना ही बल भरोसा रखकर अपने शायक स्वभावका ही आलम्बन करें उसी में लीन ( तन्मय ) होयें तथा जो परद्रव्यका संयोग अनादिकालसे है उसका यथा शक्ति पदके अनुसार त्याग करें, ब अरुचि रक्खें संसार शरीर भोगोंसे विरक्त रहें । संक्षेपमें सांसारिक सुखोंकी वांछा या अभिलाषा नहीं करना नि कांक्षित अङ्ग कहलाता है। १. कर्मपर वो शान्ते दुःखैरन्तितोदये पापबोजे सुखेऽनास्था अज्ञानाकांक्षणा स्मृता ।।१.२४॥ रत्मा । __ त्यर्थ:----सांसारिक सुखोंको अर्थात् परद्रव्योंकी जो आत्मासे भिन्न है ( विकाररूप है } पराधीन हैं ( वेदनीय आदि क के अधीन है--निमित्ताधीन है ) विनश्वर है ( मनित्य है ) आकुलसा (दुख ) रूप है और दुःख या आकुलताका बीजरूप हैं ( निमित्तरूप है ) उनमें उपादेयताको श्रद्धा नहीं. करमा- अर्थात् उन्हें इष्ट हितकारी नहीं मानना न उनको आकाक्षा करना। यही नि:काक्षिस अंह है। जिनशाका पालना है कि परद्रव्य अपना नहीं उसको आकांक्षा मत करो।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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