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सम्यग्दर्शन
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नोट- यहाँ पर, उपादान व निमित्त दोनों कारण सिद्ध हो जाते हैं जो अभिन्न रूप हैं | द्रव्य उपादान है और निमित्त ( अन्तरंग ) उसको अव्यवहित ( समर्थ ) पूर्व पर्याय है। इसमें कोई विरोध नहीं आता, किन्तु बाह्य या भिन्न चीजोंको निमित्त मानना, व उसके जरिये कार्यका होना, मानने में स्पष्ट विरोध उपस्थित होता है किम्बहुना इसे समझना चाहिये तभी सम्यग्दर्शन शुद्ध व निर्मल-भूल-भ्रम रहित हो सकता है अन्यथा नहीं यह पक्का हैं अस्तु । प्रतिकूल- विसदृश-विजातीय, पर्यायसे कभी अनुकूल सजातीय पर्याय उत्पन्न नहीं हो सकती । जिस प्रकार दूध या दही पर्याय ( अनुकूल ) से ही घी पर्याय उत्पन्न हो सकती है किन्तु पानी जैसी प्रतिकूल पर्यायसे घृतपर्याय उत्पन्न कदापि नहीं हो सकती ऐसी वस्तु व्यवस्था है । उसी तरह अशुद्ध या रागद्वेषरूप पर्यायसे अशुद्ध रागद्वेषरूप ही पर्याय उत्पन्न होगी, विरागरूप शुद्धपर्याय प्रकट न होगी ।
'पादानकारण
हि कार्य मति इति नियमात्
ऐसी स्थिति में
'हेतुद्राविष्कृतकार्यलिंगा-अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयंम्'
यहाँ पर हेतुद्वय
पदसे दो हेतु अवश्य लिये जाते हैं किन्तु वे दो हेतु कौन हैं ? इसके उत्तर में द्रव्य और पर्याय ये दोनों ही हेतु कहना पड़ेंगे, जो उपादान व निमित्तरूप हैं ) इत्यादि । विचार किया जाय ! च भ्रम या विवाद मिटा जाय किम्बहुना ।
१- अपने एकत्त्वविभक्त चैतन्य रूप अशुद्ध स्वरूपमें सन्देहादि नहीं करना, निश्चय नि:शक्ति अङ्ग है, जो स्वाश्रित है।
२-जिनवाणी, जिनदेव, आदिमें सन्देह नहीं करना, व्यवहाररूप, निःशंकित अङ्ग है जो पराश्रित है । अथवा मृत्यु आदि पर पदार्थका भय ( शंका ) नहीं करना सो व्यवहार निःशंकित अङ्ग है अर्थात् सात प्रकारका भय नहीं करना ( त्यागना ) व्यवहार निःशंकित अङ्गका पालना कहलाता है यह तात्पर्य है ।। २३ ।।
२- सम्यग्दर्शनका निःकांक्षित अंग बतलाया जाता है ( जिनाना के विरुद्ध परद्रव्यकी आकांशा नहीं करना ) इह जन्मनि विभवादन्यमुत्र चक्रियकेशवं त्वादीन् । एकान्तवाददूषित पर सैमयानपि च नाक क्षेत् ||२४||
पद्य
निःकीक्षित वह अंग सही है, जिसमें वोछा नहिं परकी । धन की नारायण पदवी, इह भष परभव नहिं जियकी ।।
१. परलोक ।
२. नारायण ।
३. अन्य धर्म व अन्य शास्त्र ( जैन धर्म व जैन शास्त्रों भिन्न धर्म व शास्त्र
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