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________________ m adeo पुरुषार्थसिद्ध पुपाय नाहिए ! साक्षः म सुचित करती है मति जब किसी तरह का पर्यायाश्रित भय रहता है या लज्जा रहती है सब उसको निवारण करनेके लिए सरह २ के विकल्प, या रक्षाका उपाय यह जीव करता है । यह जब निर्भय हो जाता है तब न कोई विकल्प करता है न प्रतीकारका उपाय ही करता है यह नियम है। और तभी ग्रह जीव निईन्द होता है. वही दशा हितकारी है इति । आकांक्षा या चाह बुराई है ( अवगुण है ) अनाकांशा निर्मोहता भलाई है-हितकारी है ( गुण है ) इति 1 भय व आकांक्षाका होना पर्याय (अशुद्ध ) दुष्टि है जो अणिक है ाज्य हैं। जीवन, मरण, दवाई सेवन, अन्नादि ग्रहणका राग भी हानिकारक माना गया है अस्तु, द्रव्यदष्टि करनेपर आकांक्षा, भय, आदि कुछ विकल्प नहीं होता और पर्याय दृष्टि करनेपर आकांक्षा भय आदि सभी होता है ऐसा समझना चाहिये। इस तरह निश्चय और व्यवहार दो तरहका निःकांक्षित अङ्ग बताया गया है ॥२४॥ ३--निविचिकित्सित अंग का स्वरूप व कर्तव्य शुतृष्णाशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु' । द्रव्येषु पुरीषादिषु विचिकित्सा नैव करणीया ॥२५॥ क्षुधा तृषादिक ये सब पुद्गम की पर्याएँ हैं। औध पृथक् हैं इससे सो भी युक्दशा अपनाए हैं । इससे धुधजन नहिं करते हैं, ग्लानि द्वेषता उन सब से। अव्यरूप विध्मदिक से भी ग्लानि छोप्त ध्रुधिबल से ||२५|| अन्वय अर्थ-आचार्य कहते हैं कि [ क्षुष्याशीतोष्णप्रभृतिषु नानाविधेषु भावेषु पुशेषादिषु अग्रेषु ] भूख-प्यास जाड़ा गर्मी इत्यादि तरह २ की पुद्गलकी पर्यायों में अथवा संयोगीपर्याय होनेवाले भूख-प्यासादिक रूप विकारीभावों { परिणामों ) में तथा टट्टी आदि पुद्गलद्रव्यमें भी { सबको पर जान करके । [ विचिकिमा नैव करीया ग्लानि धुणा या संक्शता नहीं करना, बहो निर्विचिकित्सित अङ्ग कहलाता है । वस्तुस्वभावका ज्ञाता बैसा नहीं करता, उसको वह दोष मानता है ।।२५।। भावार्थ सम्यग्दृष्टि भेदज्ञानीको जब सब द्रव्यों और उनकी क्षणिक विकारी ( अशुद्ध ) व अविकारी ( शुद्ध पर्यायोंका भिन्न २ ज्ञान हो जाता है तथा अपने स्वभाव विभाव भावोंका भी यथार्थ ज्ञान हो जाता है और उन भावोंके फल ( कार्य ) का भी पता लग जाता है, ( बोध १. उत्पन्न होते या प्रकट होते। २. विकारी परिणाम-तरह २ को इच्छाओंका होना व रागडेष आदिका होना सब जीवद्रव्यके विकारभार हैं जो संयोगीपर्याय में हुआ करते हैं ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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