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________________ पुरुषार्थ सिद्धपाथ प्रमत्तयोगोऽस्ति ] दूसरेके द्वारा प्राप्त किये गये । संचित ) धनको, यदि कोई दूसरे आदमी ( जिन्होंने कमाया नहीं है ) ग्रहण करते हैं अर्थात् चुरा लेते हैं तो यहाँ प्रमादयोग अवश्य होता है अर्थात् उनके तीव्रराम या तीनकषाय सहित प्रवृत्ति बराबर पाई जाती है । इस तरह चोरके खुद भावमाणोंका घात होनेसे उसको हिसा पाप तथा चोरीका पाच ( हिसारूप ) दोनों लगते हैं । अथवा कदाचित् धनवालेका मरण हो जाय तो निमित्ततासे लोकमें उसका अपराधो भी चार होता है। सजा मिलती है, ऐसो व्याप्ति समझना चाहिये ।। १०४ ॥ भावार्थ- यहाँपर निश्चय हिंसा और व्यवहार हिंसा तथा निश्चय चोरी और व्यवहार चोरी का प्रदर्शन किया गया है, जो स्वाचित और पराश्रित है, इसे ठोक-ठीक समझना चाहिये। जो जीव चोरी करनेका, हिंसा करनेका, झूठ बोलने का, कुशील सेवन करनेका तथा परिग्रह करनेका इरादा या संकल्प करता है वह अपने स्वभावभावको चोरी या हरण ( घात ) करता है अथवा स्वभावभावको प्रकट नहीं होने देता है जो अपराध है। अतएव वह निश्चय या स्वाधित चोरी है। तथा परद्रव्यको चुराना यह पराश्रित या व्यवहार चोरो है। उसके होनेसे भाव व द्रव्य दोनों हिंसाबोंका होना सम्भव है। कारण कि उसका निमित्तकारण एक कषायको तीव्रतारूप प्रमादयोग हो है। तब हिंसा व चोरीकी व्याप्ति ( संगति ) बनने में कोई बाधा नहीं आती....निश्चितरूपसे व्याप्ति सिद्ध होती है किम्बहुना । सब पापोंको खान ( योनि या आयतन ) हिंसा है और हिंसाको खान प्रमाद है, ऐसा समझना चाहिये । मुख्यतया जहाँ प्रमादपूर्वक चोरी की जाय, वहां तो चोरीका पाप लगता है, परन्तु बिना प्रमादके नहीं लगता, ऐसा आगमका न्याय है। फलतः खाली परद्रव्यका ग्रहण होना मात्र चोरी नहीं कहलाती, जिसमें प्रमाद न हो, जैसे ईर्यापथास्रव होता है वहाँ चोरीका दूषण नहीं लगता। लोकमें भी बिना इरादेके गलती हो जानेपर गलती नहीं मानी जाती । यद्यपि बन्ध ( सभा के कारण कषाय और योग दोनों हैं तथापि कषाय मुख्य है उसीसे स्थिति, अनुभाग पड़ता है इत्यादि। 24 न्यायशास्त्र में अव्याप्ति, अतिव्यप्ति, असंभव ये तीन दोष लक्षणके माने जाते हैं । उनका स्वरूप यथा संभव बताया जायगा, वह सुलभ है । अस्तु । नोट-इस स्थल में चोरी और हिंसा दोनोंमें अव्याप्ति दोष नहीं है कि कहींपर चोरी तो हो और हिंसा न हो। स्थल कोई नहीं है--सर्वत्र जहाँ-जहाँ चोरी हो वहां-वहाँ हिंसा अवश्य होती है । परन्तु ऐसी व्याप्ति प्रमादपूर्वक चोरोके साथ है -प्रमादरहित चोरो (परद्रव्यका ग्रहण } के साथ व्याप्ति नहीं है, यह विशेषता है। लोकमें गठबन्धनको व्याप्ति कहते हैं। यदि यहाँ बह प्रश्न किया जाय कि कोई-कोई जीव चोरी हो जानेपर सदमासे नहीं मरते तो क्या उस चोरको हिंसाका पाप नहीं लगेगा? इसका समाधान यह है कि उसके ( धनोके ) यदि संक्लेशता न हो या राग द्वेष न हो बराबर चोरके निमित्तसे धनी हिंसा पापसे बच सकता है अन्यथा संक्लेशता होनेपर चोर व साहूकार दोनोंको हिंसाका पाप लगना अनिवार्य है, चोरके परिणाम स्वराब होनेसे वह हिंसा पापका भागी हर हालत में होता है इत्यादि ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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