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________________ पुरुषार्थसिवापाम पद्य सब द्रव्योंमें रागद्वेषका स्याग करे जो होता है । ऐसा साम्यभाव धारणकर भास्मस्वरूप अत्ताता है ॥ आरमसिद्रिका मूल यही है सामानि तुम मा । बारबार उसको करना भवि, शिक्षा प्रभुकी यह मानो ॥५४॥ अन्वय अर्थ- आचार्य कहते हैं कि भव्यजीवोंका कर्तव्य है कि वे निषिलदच्यषु रागद्वेषत्यागात् साम्श्रमवलमय ] सम्पूर्ण द्रव्योंमें रागद्वेषको त्यागकर समताभाव धारण करें ( निष्पक्ष होवें) और [ तरचोपलम्निमूलं बहुशः सामाग्रिक कार्यम् ] आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ( मुक्ति ) या अनुभूतिका मूलकारण ( मुख्य उपाय ) सामायिकको बार-बार करें, यह सर्वज्ञदेवका उपदेश (शिक्षा ) है । विना सामायिक किये आत्मस्वरूपकी प्राप्ति नहीं हो सकती ।।१४८॥ भावार्थ--जबतक आत्मानुभव प्राप्त न हो अर्थात् आत्माके शुद्ध स्वरूपका ज्ञान न हो व स्वाद न आवे तबतक जीवोंको रुचि परपदार्थों की ओर रहती है. हटती नहीं है। अर्थात् उन्हीं परपदार्थों ( इन्द्रियोंके विषयों का स्वाद आता है और उन्हीं में रुचि या श्रद्धा रहती है यह प्रायः नियम है। और जब उनके विपक्षी आत्म पदार्थ ( द्रव्य )का स्वाद आता है तब उसके सामने और शेष सब वस्तुओंके स्वाद फीके ( तुच्छ । पड़ जाते हैं वहीं स्वाद सर्वोत्कृष्ट मालूम होने लगता है । फलतः उन सबसे रुचि हटकर अपने आत्मामें हो होने लगती है और उसी में यथाशक्ति लोन या तन्मय हो जाता है। परन्तु ऐसा होने या करने के लिये रागद्वेष या पक्षपातका अभावरूप 'साम्यभाव' होना चाहिये, क्योंकि वहीं 'सामायिक आत्मस्रूपमें एकाग्रता या लोनताका मूल कारण है। अर्थात् समताभाव ( साम्यभाव ) हुए विना एकाग्रता नहीं होती और रागद्वेष छुटे बिना समलायाब नहीं होता, ऐसी अवस्था में पहिले सब द्रव्यों में रागद्वेषका छूटना अनिवार्य है। आत्मस्वरूपकी प्राप्ति ( अनुभूति का साक्षात्कारण, सामाधिक है, सामायिकका कारण 'साम्यभाब' है--साम्यभावका कारण, रागद्वेषका अभाव है, ऐसा समझना चाहिये और उसके लिये बार-बार सामायिकका अभ्यास करना चाहिये, यह निष्कर्ष है अस्तु । यह सामायिकरूप साधन, व्रती अन्नती सभीके लिये उपयोगी पड़ता है ( लाभदायक है) चित्तवृत्तिको स्थिर करना रोकना मामूली काम नहीं है, संसार या ऋर्मबन्धन छूटनेका यही एक उपाय है और सरल उपाय है, उसके करने में बाह्यपरीषह या त्याग कुछ भी नहीं करना पड़ता है सिर्फ मनको ( उपयोगको ) थोड़ा रोकना पड़ता है जो अतिचंचल है । उससे यह विशेष लाभ होता है कि आत्मस्वरूपकी पहिचान या अनुभूति होती है, जिससे वह जीव स्वोन्मुखदृष्टि करके परका स्यागकर मोक्ष जा सकता है। इसके सिवाय सामयिकको करते समय चित्त स्थिर हो जानेसे निराकुलता होती है और उससे सुख व शान्ति मिलती है इत्यादि । नोट-'समय' शब्दसे सामायिक बनता है । समयके अनेक अर्थ है ( १ ) आत्मा (२) काल (३) शास्त्र ( ४ ) औषधि (५) धर्म इत्यादि । परन्तु यहांपर 'आत्मा' अर्थ लेना है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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