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________________ सम्यग्ज्ञान १२९ नोट---उपर्युक्त विशेषता सिर्फ अवधिज्ञानमें बतलाई गई है। अत: वह पूर्वोक्त अनेक प्रकारका होता है दृष्टान्त तो समझने के लिए दिये जाते हैं। अवधिज्ञानमें स्वयं वैसा परिगमन होता है सो जानना। (४) मनःपर्ययज्ञान...जो ज्ञान, दूसरे के मनमें स्थित रूपी पदार्थको जाने व जानता हो, उसको मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । यह देश प्रत्यक्ष कहलाता है। इसके (1) ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान, (२) विपुलमति मनःपर्ययज्ञान, ऐसे दो भेद होते हैं। __नोट-मनःपर्ययभानमै अवधिज्ञानसे अधिक विशुद्धता ( निर्मलता) होती है और उत्कृष्ट देशावधिसे लेकर मनःपर्ययज्ञान व केवलज्ञान संयमी जीवोंके ही होते हैं तथा वे तद्भव मोक्षगामी भी हुआ करते हैं । आगे २ के ज्ञानोंका विषय सूक्ष्म २ है इति । (५) केवलज्ञान-जो ज्ञान तीन लोक स्थित सम्पूर्ण ज्ञेयों ( पदार्थों ) को उनको श्रेकालिक पर्यायों सहित युगपत् स्पष्ट हस्तामलककी तरह जाने या जानता हो, उसको केवलज्ञान कहते हैं, वह अनुपम व अद्वितीय सदा स्थायी है ऐसा समझना चाहिये। इसके निश्चय और व्यवहार दी भेद होते हैं। अपनेको जानना निश्चय और परको जानना व्यवहार है ऐसा समझना चाहिए। परोक्षज्ञानके ५ भेद (१) स्मृति. (२) प्रत्यभिज्ञान, (३) तर्क, { ४ ) अनुमान, ( ५ ) आमम । परन्तु ये श्रुतज्ञानमें अन्तर्भूत होते हैं ऐसा समझना चाहिये । इसके दूसरे नाम भो नीचे लिखे गये हैं। लक्षण व स्वरूप ( क ) स्मृत्तिज्ञान--पूर्वमें जाने हुए पदार्थका स्मरण होनेपर जो वर्तमानमें ज्ञान होता है उसको स्मृतिज्ञान कहते हैं। वह स्मरण संस्कारके रहनेपर होता है-विना संस्कार बड़े नहीं होता-- जैसे हमने उसे देखा है इत्यादि। (ख ) प्रत्यभिज्ञान-जो ज्ञान स्मृति और अनुभव ( प्रत्यक्ष ) दोनोंके मेलसे जोड़रूप होता है, उसको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। जैसे किसीके मुंहसे यह सुना था कि गवय ( गुरांसपा ) गायके समान होता है। उसके बाद किसी जंगल में गवय ( नीली गाय-गुरांय ) को देखा, देखते ही पहिली बात याद आगई कि अहो! यहो गवय है या होना चाहिये जो पहिले सुन रखा था इत्यादि । यहाँपर 'वह' स्मृतिज्ञान है 'यह' अनुभव ज्ञान है। ऐसा जानना अथवा किसीको छुटपनमें देखा था फिर बहुत समय के बाद मिलाप हुआ उस समय यह तो यही है जिसे छुटपनमें देखा था, ऐसा जोडरूप ज्ञान, प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । उसके सादृश्य प्रत्यभिज्ञान आदि अनेक भेद होते हैं। १. मतिः स्मृतिः संज्ञा चिन्ताभिनिदोध इत्यनन्तरम् ॥१२॥ ...सूत्र प्रथम अध्याय, ये दूसरे नाम मलिशान है।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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