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________________ २०३ भूमिका यहाँ कोई मांसभक्षी तर्क करता है कि यदि किसी जीवको मारकर खाया जाय तो वह मांसभक्षी व सिपाप करने वाला माना जा सकता है किन्तु अपने आप ( आयु पूर्ण होने पर ) मर जानेवाले पशुओंका कलेवर ( मांस ) खानेसे न हिंसा होती है न मांस खानेका दोष लगता है ( न लगना चाहिये ) ? mari इसका उत्तर देते हैं। raft fre भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः । तत्राषि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ।। ६६ । स्वपि 'विपच्यमानासु मांसपेशी | निगोतानाम् ॥ ६७ ॥ आमास्वैपि सातत्येनोत्पादस्तज्जातीयानां पक्ष e are afer पशुओंका मांस मर गये भी होता । उसके खानेसे होती है हिंसा जब वर्षण होता ॥ ६६ ॥ heat rest और पक रही दशा तीन त्रि होती है । सीमोंमें ही उत्पति होती जीवराशि यह मरती है ॥ ६७ ॥ सम्मूर्च्छन है नाम उन्होंका नाम निगोत घराते हैं। उनका जन्ममरण नित होता वयपर्यातक होते है || अन्वय अर्थ --- आचार्य कहते हैं कि [ किल स्वयमेव मृतस्य महिषभाय मांस भवति ] जो गाय, भैंस आदि पशु स्वयं आयुके पूर्ण हो जाने पर मर जाते हैं उनसे जो होता है वह भी निश्चयसे मांस ही कहलाता है और [ तत्रापि हिंसा भवति ] उसके सेवन करने ( खाने ) से भी fear अवश्य होती है क्योंकि [ तदाश्रितमिगो निमंथनात् ] उस मांसके आधारभूत जो सम्मूच्छेन ( निगोत ) जीव रहते है अर्थात् उसमें उत्पन्न होते हैं, वे धर्षण करनेसे या चबानेसे या स्पर्शादि करनेसे अवश्य ही मर जाते हैं, तब हिंसा बराबर होती है, यह सम्भव है ।। ६६ ।। १. सम्मूर्च्छन जोत्र | २. घर्षण या मसउन था दवाउरा । ३. कच्चा या गीला ( आई ) । ४. सूखा ( चमड़ारूप ) । ५. अधपका चुराया जा रहा। ६. मांसकी डली ( टुकड़ा 11 ७. उसी जालिके भैंस, गाय वगैरह । 4. गोत्र वाले, या उसी कुल-गोत्र वाले जीव । अथवा सम्मूर्च्छन जीव ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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