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________________ २08 पुरुषार्थसिधुपाय तथा अपि मा पर पानी बिना मा सांसपेशीषु ] और मांसकी डलो चाहे कच्ची ( गीली या आर्द्र तत्कालको ) हो या पकी सुखो हो या अधपकी ( कुछ गीली कुछ सूखी ) हो उसमें [ सासन्येन तरजातीयानां निगोतानां उपादः भवति ] निरन्तर उसी जातिके ( जिस जातिका मांस हो ) सम्मूच्र्छन । लकव्यपर्याप्तक) जीव उत्पन्न होते रहते हैं अतः मांसके या नगड़ाके भी उपयोग ( सेवन ) करनेसे, उनका घात ( हिंसा ) होना अनिवार्य है ।। ६७॥ भावार्थ-मांसपिंड, चाहे स्वयं मरे हुए जानवरका हो या मारे गये जानवरका हो अथवा चाहे वह गोला हो या सूखा हो या अवसूखा हो, उसमें हर समय उसी जातिके सम्मूच्छंन सजीवलब्ध्यपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं, अतः जो प्राणी ( लोग) उसका सेवन या उपयोग करते हैं वे असंख्याते जीवोंका धात ( हिंसा ) बराबर करते हैं, जिसका फल उनको भयंकर दुःखोंके रूपमें भोगनेको मिलता है ऐमा समझना चाहिये एवं उसका उपयोग करना छोड़ देना चाहिये यही मनुष्यता है, विवेकशीलता है, किम्बहुना । चमड़ेकी चीजोंका उपयोग करना भी इसीलिये वर्जनीय है, क्योंकि उसमें उत्पन्न होने वाले जीवोंको हिंसा स्पर्शसे, रगड़से, कुचने-पिचनेसे अवश्य होती है। सारांश यह है कि 'मांस' यह एक शरीरगत धातु है, जो कि रक्तसे उत्पन्न होती है अर्थात् पहिले शरीर में जानेवाले पदार्थ खलरूप परिणत होते हैं, पश्चात् वे ही खलरूप ( खरोरूप ) पदार्थ, रसरूप ( पानीकी तरह तरल ) परिणत होते हैं। उसके बाद वह रसभाग, रक्तरूप ( खूनरूप ) परिणत होता है। फिर वही रक्त, मांसरूप ( पिंड वकड़ा ) परिणत होता है। फिर मांससे चर्बी उत्पन्न होती है। चर्वीसे ( मेदासे ) हड्डो बनती है । उस हड्डीसे मज्जा ( छोटे नसाजार ) होतो है और मज्जासे वीर्य उत्पन्न होता है तथा फलस्वरूप वीर्यसे सन्तान उत्पन्न होती है। इस प्रकार प्रक्रिया' है। नोट-इनमें विशेषता यह है कि जबतक ये धातुएँ गरम ( उष्ण्य ) रहती हैं तबतक उनमें जीय उत्पन्न नहीं होते वे प्रासुक याने जीव रहित होती हैं और जब वे ठंडी हो जातो हैं तब उनमें जीवराशि उत्पन्न हो जाती है ऐसा जानना । फिर मरे हुए व मारे हुए जीवोंके मांस में भेद करना मूढ़ता ( अज्ञानता ) है-दोनों तरहके मांसपिंडमें कोई भेद नहीं होता, दोनों त्याज्य हैं, दोनोंमें जीवराशि उत्पन्न होती है व मरती है अतएव मांस सदैव वर्जनीय है। यहाँ पर हिंसाके प्रकरणमें मुख्यतया द्रव्याहिंसाका कथन किया गया है जो लोक प्रसिद्ध है। परन्तु उसके साथ २ भावहिंसाका कथन भी सिद्ध हो जाता है क्योंकि बिना कषायभावोंके (भाद ....................... ....... . Gram १. उक्तं च--- रसाद्रक्तं ततो मांसं, मांसान्मेदः प्रवर्तते। मदतोऽस्थि सतो मज्ज, मज्जाउछु ततः प्रजाः ।। चरक ।
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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