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________________ ससकीलप्रकरण Aikime Ha n i..... चाहिये । संक्लेशता और दयाका परस्पर विरोध है अस्तू। कोई पैसेके लोभसे परोपकारके नामपर कार्य करता है तो कोई ख्याति प्रतिष्ठाके लोभसे कार्य करता है परन्तु दोनों ही बुरे कार्य हैं यतः वह सापेक्षता है, निरपेक्षता नहीं है अतः हेय है। तर्कका विशेष समाधान इस प्रकार है कि इसका कोई भरोसा ( गारंटी ) भी नहीं है कि शेर मर ही जायगा व अनेक जोन बच हो जायेंगे भरेंगे नहीं। कदाचित् निशाना चूक गया तो क्या होगा? और जीवोंको मरना ही होगा तो क्या होगा? जो होनहार है वह होगी ही, तब फिर अपने भावोंको क्यों बिगाड़ना । विवेकी जीव सदेव अच्छा विचार करते रहते हैं वही कर्तव्य है १३१४४॥ आगे आचार्य-~-दुश्रुतिनामक ( ५ ) पांचवें अनर्थदंडका त्याग कराते हैं। रागादिवर्धनानां दुष्टकथानामबोधबहुलानाम् । न कदाचन कुर्वीत श्रवणार्जनशिक्षाणादीनि ॥१४५।। पञ्च जिनसे रागचष बढ़ता है, ऐसी दुष्ट कथाओंका । सुमना-पहना शिक्षा देना, कसंत्र नहिं है प्रतियोका ॥ असी सदा दृष्टि रखते हैं, व्रतकी रक्षा करनेकी । दोष हयामेसे वह होती. दुष्ट कथा नहिं सुननेको ।। १४५|| अन्वय अर्थ---आचार्य कहते हैं कि जो दुःश्रुति नामक अनर्थदंडका त्यागी ( अणुव्रतो ) हो उसको [ अश्रोधबहुलानां सगाविबर्धनानां दुष्टकानां ] अज्ञान और मिथ्यात्वसे भरी हुई र पोषक तथा रागद्वेषको बढ़ानेवाली ऐसो खोटी ( बराब) कथा कहानियों-चर्चाओंका [ काचन श्रवणार्जनशिक्षणादीनि न कुर्वीत ] कभी सुमना-पढ़ना याद करना--शिक्षा देना नहीं चाहिये अर्थात् वह उक्त कार्य कभी न करे, तमो दुःश्रुतित्याग अणुव्रत सुरक्षित रह सकता है याने पल सकता है ।।१४५।। भावार्थ-स्नेतकी रक्षाको जिस प्रकार बाड़ी (तार वगैरह )का लमाना जरूरी है उसी तरह बसोंकी रक्षाके लिये, मन वचन काप व कषायोंका रोकना, उनको नियंत्रण में रखना अनिवार्य है । फलतः दुष्ट कथाओं के सुनने आदिका राग ( कषाय ) नहीं करना यही बंधन या वारी है। रागद्वेष आदिके वशीभूत होकर ही प्राणी खोटी कथाकहानियों ( मनगढन्त उपन्यास आदि कषाय पोषक ) वार्ताओंको बड़ी दिलचस्पोके साथ सुनता है हर्ष विषाद करता है, स्वयं पढ़ता है दूसरोंको पढ़ाता है प्रेरित करता है जिससे कर्मबन्ध होता है और कुमार्गका प्रचार होता है, व निजको कुछ लाभ होता नहीं है। अतएब अनर्थ जानकर विवेकियोंको जनका त्याग करना ही बतलाया गया है। उक्त च-'आतमके अहित विषय कषाय इनमें मेरी परिणति न जाय इत्यादि । १. अपना घर जलाकर तमाशा नहीं देखना चाहिये, यह लोकनीति है। अपनी हिंसा करके परकी दया नहीं करना चाहिये। ..... .. .
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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