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________________ पुरुषार्थसिद्धपुपाय AU: मलया वहीता, जब उपकरणादिक नाहें देखें । अपमेसे अतिरिक्त जन को जो चित हिंसादिक लये ||१४४॥ BAR अन्वय अर्थ--आचार्य कहते हैं कि [ हिंसायाः उपकरणार्मा ] अणुव्रतीका कर्तव्य है कि वह हिंसाके उपकरणों { साधनों )का जैसे कि [ असिधेनुविषहुताशनसांगलकावासकामुकादीमा ] छुरीकटारी, विष, अग्नि, हल, तलवार, धनुषवाण, आदि चीजोंका [ विसरणं अत्मात् परिहस्त ] परस्वार्थ के लिये देना ( जो हिंसक मनुष्य हों) विवेक और चतुराई सहित बन्द कर देवे, जिससे उनको बुरा न लगे इत्यादि अथवा स्वयं भी उनका उपयोग बड़ी सावधानीसे करे, जिससे हिंसा न होने पात्रे । तभी हिंसादान अनर्थदंडका त्याग करना कहलावेगा ।।१४४|| भावार्थ---अणुव्रती श्रावक श्लोकमें लिखी हुई वस्तुएं अपने प्रयोजनके लिये ( रक्षाके लिये ) बराबर रख सकता है-उनके रखने की मनाही नहीं है कारण कि अपनी रक्षाके लिये वह उनको रखता है जब कि यह गृहस्थाश्रममें है। पदपदपर उनकी जरूरत पड़ना सम्भव है। हाँ, वह सिर्फ अपनी रक्षाके लिये ही रख सकता है किन्तु परस्वार्थ के लिये नहीं रख सकता और प्रयोजनसे अधिक भी नहीं रख सकता, अन्यथा उसको नैमित्तिक दोष ( हिंसा ) लगेगा इत्यादि--- तभी तो इस श्लोकमें 'यत्नात् व वितरणं' पद लिखा गया है कि बड़े यत्नसे अर्थात् चतुराई छ सावधानोके साथ अपने ही पास में रखे व प्रयोग करे, अन्य किसी अविश्वासीको हिंसाके लिये न देवे न यश प्राप्त करे ( बड़वारी न चाहे ) तथा ऐसा भी न करे कि जरूरतसे ज्यादह परस्वार्थके लिये रखे, क्योंकि उससे हानि होती है-निमित्त मिला देनेसे उसका अपराध दानीको लगता है। कारण कि जब किसी जीबके विशेष रागद्वेष होता है तभी वह परोपकार या परस्वार्थकी भावना रखता है एवं उसके बाद्यसाधन मिला देता है। फलतः उन परिणामों { भावों का फल उसे अवश्य मिलता है यह तात्पर्य है। अतएव हिंसाके साधनोंको दूसरोंके लिये हिंसाके खातिर कभी नहीं देना चाहिये तभी व्रतकी रक्षा हो सकती है। यहोपर यदि कोई यह तर्क करे कि कदाचित अपने साधनों ( हथयार आदि से दूसरोंकी रक्षा भलाई होती है तो देनेवालेको दयालुतासे (करूणा भावसे ) उपकरण दे देना चाहिये। उससे देनेवालेकी लोकमें बड़वारी ( प्रशंसा-कोति) होगी और दयाका फल लगेगा ( पुण्णबंध होगा) इत्यादि लाभ भी होगा? इसका समाधान ( उत्तर ) इस प्रकार है कि वैसा तर्क करमा गलत धारण है अर्थात अज्ञानता है । जैसे कि कोई यह कहे कि 'शेर या सिंह को मार डालनेसे अनेक जीवोंकी रक्षा होती है अर्थात् उनपर दया या करुणा करना होता है या पलता है, जिससे पुण्यका बन्ध हो सकता है अतएव शेर ( हिंसक को मार डालने में कोई हानि नहीं है अर्थात मार डालना चाहिये कोई पाप नहीं है इत्यादि । वह सब गलत ख्याल है। भावुकतामें दूसरेको मार डालने वाले शिकारोको यह भी तो सोचना चाहिये कि जब कोई कर परिणाम ( अदयारूप) करके शेरको मारता है तब उसके दया परिणाम कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता, फिर पुग्धका बन्ध कैसे होगा? किसी भी जीवका मारना दयासे नहीं होता अदयासे होता है, उससे पाप हो बंधता है। अतः गलत धारणा नहीं करना
SR No.090388
Book TitlePurusharthsiddhyupay
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
AuthorMunnalal Randheliya Varni
PublisherSwadhin Granthamala Sagar
Publication Year
Total Pages478
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size14 MB
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